Hindi Poems

बाबागिरी

आत्मा का परमात्मा से वो जल्दी मिलन कराते हैं.
एक बुद्धि असफल होती वो दूजी राह दिखाते हैं.


अबतक जिसके दर्शन ना हो पाए कहीं किसी को भी.
खुद भी कभी न देखा पर वो औरों को दिखलाते हैं.

बड़े बड़े उपदेश हैं उनके सब तर्कों पर भारी हैं.
तर्क की जब भी बात चले वो चीख चीख चिल्लाते हैं.

शिष्यों की भरमार है जो कुछ भी करने को तत्पर है.
जब भी पोल खुले उनकी वो मौन देश को जाते हैं.

इक अड्डा जब चूर हुआ तो चेले ढूंढें और कहीं.
धंधा उनका चला करे नित नई युक्तियाँ लाते हैं.

अंधविश्वास कह देते हैं वो देशी छोटे नुस्खों को.
रूप उसीका है ये भी पर उसको अलग बताते हैं.

दूजा बाबा वही कहे तो गलत निगाहों में उनकी.
अपना जो सिद्धान्त है उनका वही सही ठहराते हैं.

मैंने पूछा आत्मा के है इर्द गिर्द हड्डी कितनी.
बोले मेरा विषय नही है चेहरा उधर घुमाते हैं.

सभा समापन पर बोले एसे सवाल क्यों करते हो.
चुप रहना कुछ ले ले लेना तुम भी मुझको ललचाते हैं.

भक्त हैं आश्रम में कम औ सुंदरियां दिखती ज्यादा हैं.
ऐसी भी खबरें हैं उनका नेक न जरा इरादा है.

जो भी उनको मिले चढ़ावा लेखा जोखा मिले नही.
कहते हैं हम तन मन से ही पुण्यों पर आमादा हैं.

एक और दो

एक धागा।
दो कपड़े।


एक आकार।
दो टुकड़े।

एक रंगरेज।
दो रंग के कपड़े।

एक कपड़ा।
दो झंडे।

एक मिट्टी।
दो खेत।

एक भवन।
दो पूजास्थल।

एक पानी।
दो तालाब।

एक खोपड़ी।
दो दिमाग।

एक हवा।
दो साँसें।

एक शरीर।
दो आस्था।

एक अनाज।
दो व्यंजन।

एक धातु।
दो बर्तन।

एक दिन।
दो त्यौहार।

एक रात।
दो सपने।

एक इंसान।
दो पहचान।

एक खून।
दो लाशें।

बचपन

बचपन का बीता इक-इक पल
अब याद बहुत ही आता है।
बीती बातों में जाता हूँ
तो दिल मेरा खो जाता है।


बचपन की वह मीठी बोली
मित्रों की वह अपनी टोली
होली जो अब सालाना है
तब थी रोजाना वह होली।

जब खेलकूद याद आता है
मेरा दिल तो रो जाता है।

आमों के उन बागीचों में
वो नाटक अपना प्यारा सा
वैसा तो अब है कही नही
वो था विचित्र और न्यारा सा।

उसकी यादों में खोकर अब
मेरा दिल यूँ घबराता है।

पल में हँसना पल में रोना
सब कितना अच्छा लगता था
शत्रुता-मित्रता पल में ही
पर सब अपना ही लगता था।

दोस्ती का तो वैसा मिसाल
अब कही नजर ना आता है।

तब शर्म नही औ कर्म नही
बस खेला कूदा करते थे
कोई चाहे कुछ भी कर ले
हम बिलकुल भी ना डरते थे।

उन बातों को सच पूछो तो
अब नही भुलाया जाता है।

पढ़ना लिखना बस थोड़ा सा
खेलों का ही अरमान रहा
हॉकी क्रिकेट सब दूर रहे
गिल्ली डंडे पर ध्यान रहा।

बचपन में सिर्फ मजा ही था
बस भार नजर अब आता है।

कोई दूल्हा कोई दुलहन
औ समधी-समधन बन जाते
मिट्टी के साजों बाजों से
बाराती हम सब बन जाते।

बिन डोली के दुलहन लाना
मेरे दिल को छू जाता है।

कुछ और नही बचपन में बस
खुशियों का ही संसार रहा
था वैर भाव तब कहीं नहीं
सब बच्चों में ही प्यार रहा।

बचपन का वो प्यारा जीवन
अब मुझे बहुत तरसाता है।

बचपन का बीता इक-इक पल
अब याद बहुत ही आता है।

ठूँठ और हरियाली

निष्ठुर ठूँठ कठोर को देखो सब दुख से अनजान है।
सरदी-गरमी का असर नही उसकी भी अपनी शान है।


आँधी हो चाहे तूफाँ हो वो बिल्कुल भी ना हिलता है।
कोई भी बाधा आ जाए वो रत्ती भर ना डुलता है।

परेशानियों के पहाड़ का उसपर कोई असर नही।
आगे क्या होनेवाला है उसकी इसपर नजर नही।

सुख औ दुख के भावों से भी अनासक्त सा वो रहता।
उसे कोइ अनुभूति नही हरदम विरक्त सा वो रहता।

गरमी से बैसाख की उसको बिल्कुल ना दुख होता है।
बेचारा मजबूर है वो सारे बहार भी खोता है।

नमन नही थोड़ा उसमें ना हृदय में कोइ भाव है।
अपनी प्रवृत्ति का मारा है और उसमें सिर्फ अभाव है।

हरा पेड़ हरियाली में हर पवन हृदय से चूमेगा।
आगे जो होगा देखेंगे झर झर झरने सा झूमेगा।

पता है पतझड़ आएगा पर उसे न कोई चिंता है।
उसको तो बस वर्तमान में ही जीने की इच्छा है।

“पतझड़ में पतन स्विकारेंगे औ गिरने देंगे पत्ते को।
कौन बदल सकता है आखिर कभी समय के सत्ते को।”

वैराग्य इसे स्वीकार नही है जीवन से अनुराग इसे।
कोई भी बाधा आ जाए तो कह देता है “भाग” उसे।

उत्तरजीवन की आशा में सहता है बाधाएँ कितनी।
इसको तो कम ही लगती हैं मिल जाए जीवन में जितनी।

कुपोषण का कोप

उसकी आँखों के सामने
एक काली छाया उभरी

चमकती हुई चीजें
भी दिखने लगीं धुँधली

“पापा मेरे पेट और
सीने में दर्द है”

“डरते नही बेटा
आखिर तू मर्द है”

“पापा मगर देखो तो
मौसम कितना सर्द है।
इंसान तो सही
मगर कुदरत भी बेदर्द है।

“पापा मेरे पैरों में
अजीब कँपकपी सी है।
हड्डियों में कोई
बीमारी छुपी सी है।”

“घबराते नही
और पैसा कमाऊँगा।
जल्द ही तुम्हारा
इलाज मैं कराऊँगा।”

हाथ रखकर पेट पर
लड़का गिरा अचानक।
बापू की आँखों में
दृश्य था भयानक।

दृश्य दर्दनाक था
वो सह न सका उसको।
सुबह सुबह खेत पर
पुकारे तो किसको।

बापू और बेटे का
सपना बिखर गया।
उठ न सका लड़का
बेचारा वो मर गया।

खाया न था उसने
कुछ भी दो दिन से।
मना किया उस ने
और मिला कुछ न इन से।

माली

माली था उपवन सींच गया
फल खाने को है और कोई।
वो रहा हँसाता दुख में भी
अब उसे रुलाये और कोई।


सिसकी में भी वो सिसक सिसक
हंसाता रहा सदा जिसको
उन सिसकी भरे तरानों पर
अब गाने को है और कोई।

जो खुद समझा अपने दम पे
औ समझाया औरों को भी।
जिसने सबको समझाया था
समझाने को है और कोई।

काटे झोपड़ी में दिन अपने
औ महल बनाए कितने से।
उस महल कि खिड़की पर बैठा
मुस्काने को है और कोई।

अपनों के साथ चला हरदम
गैरों से प्यार बढ़ाता था।
उस प्यार की कीमत को नकदी
भुनाने बैठा और कोई।

खाने से दाने बचा-बचा
वो देता रहा परिन्दों को।
जो दाने अब भी बचे उन्हें
चबाने बैठा और कोई।

सच की सजा

सच ही उसकी बरबादी है
फिर भी कहने का आदी है।


जो कभी नही मिलता उसको
लगता उसका फरियादी है।

मानवता उसका धर्म है औ
हर दिल में प्यार जगाता है।

जीवन में रंग भरे सबके
खुद चला पहनकर खादी है।

तलवार न उसके संग कोई
बस सच का है हथियार लिये।

बाकी गुलाम सब लालच के
उसके ढिंग बस आजादी है।

दिग्भ्रमित पथिक

मानव तेरा गन्तव्य कहाँ तू कहाँ को चला जाता है।
घर से निकला कुछ और था तू कुछ और हुआ अब जाता है।

गति तो है तेरी तेज बहुत इसमें ना काई है विराम
ऐसा प्रतीत होता है तू करने वाला है बड़ा काम।

परिवर्त्तन तुझमें बहुत हुआ आगे भी होने वाला है
आभास भी है इससे तुझ्कोतुझको क्या हासिल होने वाला है?

आगन्तुक आविष्कार तेरे जीवन को नया बनाएँगे
चमकेगा चम चम चमक चमक सब तुझको गले लगाएँगे।

पानी पृथ्वी का पिए नही उसको तू व्यर्थ बहाता है।
कैसा मूरख तू खोज में इसकी चाँद तक चला जाता है।

पुरूषार्थ तिरा परिपक्व मगर चरितार्थ है क्या होनेवाला
तू इतना सा बस कहता जा अब कहाँ है विचरने वाला।

वरदान बुद्धि का कुदरत से बस तुझको ही है प्राप्त हुआ
तिसपर तू ऐसा काम करे जैसे है तू अभिशप्त हुआ।

उद्देश्य प्रकृया और विधि ये कर्म की व्याख्या करते हैं।
परिणाम तुम्हारा ऐसा है सबलोग ही तुमसे डरते हैं।

कल्याण करे जो मानव का इससे बढ़कर कुछ धर्म नही।
जो कर्म शत्रु मानवता का उससे बढ़कर दुष्कर्म नही।

चलते रहो

अभी और चलना है चलते रहो
बाधाओं को पैरों कुचलते रहो।
जो पाने की चाहत है उसके लिए
जहाँ भी रहो तुम मचलते रहो।

गिरो नही दौड़कर सम्भलो जरा
जिन्दगी की राहों पर उतरो खरा।
इतना बस ध्यान रहे डरना नही
जो डर गया बस वही पर मरा।

मिले कोई रास्ते में लो साथ में
हाथ अगर देता है लो हाथ में।
अगर उसे चलना मंजूर ही नही
उलझो नही तुम किसी बात में।

थक जाओ रास्ते में कर लो आराम
लेते रहो अपनी हिम्मत का नाम।
रूकने को तुम समझ लेना हराम
चाहे चुकाना पड़े कोई दाम।

गर रास्ता हो निर्जन उदासी भरा
आगे चलोगे मिलेगा हरा।
चलने का चक्र यूँ ही चलता रहे
ज्यादा चलो या चलो तुम जरा।

जो दिल ना लगे तो कुछ गाते रहो
कोई अपना ही गीत गुनगुनगुनाते रहो।
लकीर का फकीर कभी बनना नही
कभी इधर और कभी उधर जाते रहो।

मजा नहीं मंजिल में सफर ही में है
डग डग बढ़े चलो डगर ही में है।
गॉवों में ढूँढोगे मिल जाएगा
ऐसा नही बस शहर ही में है।

न चलो यूँ कि दूसरों को ठोकर लगे
चाल चलो ऐसी न सोकर लगे।
साथियों से कदम से कदम को मिला
ऐसे न चलो अलग होकर लगे।

है चलना चतुराई जबरदस्ती नही
बिन चले हुई कोई पार कस्ती नही।
रास्ते का अन्त कभी होता नही
ये दुनिया है बड़ी कोई बस्ती नही।

मेरी पहचान

उसने पूछा तू कौन है पर
मैं उससे कुछ भी कह न सका।
था प्रश्न ही उसका ऐसा कुछ
बिन बोले भी मैं रह न सका।


था दुविधा में मैं क्या बतलाऊँ
कौन हूँ मैं बतलाय कोई।
जीवन भर उसका दास रहूँ
बस मेहरबान हो जाय कोई।

सोच विचार किया काफी
सोचा पहचान लूँ बेटे से।
फिर घबराकर मैं चुप बैठा
क्या मिल पाएगा छोटे से।

ना लगा मुनासिब शर्मिंदा मैं
चुप हि रहा मुँह ना खोला।
चुप रहना लगा मुझे अच्छा
इक शब्द भि मुँह से ना बोला।

अगले प्रयास में पत्नी से
परिभाषा पाई थी मैंने।
ना थोड़ा भी संकोच किया
सब गाथा गाई थी मैंने।

अहसास अचानक मुझे हुआ
काबिलियत में वो छोटी है।
मैं कितना पढ़ा लिखा सा हूँ
पर वो दिमाग की मोटी है।

फिर सोचा मैं तो आत्मा हूँ
सबसे अच्छा धर्मात्मा हूँ।
क्या फर्क है पड़ता मुझको कुछ
जो कोई कहे दुरात्मा हूँ।

मैं सहमा सोचा कभी नही
देखा है अपनी आत्मा को।
क्योंकर आखिर बदनाम करूँ
अपने जैसे धर्मात्मा को।

परमात्मा का इक अंश हूँ मैं
काफी ऊँचा सा वंश हूँ मैं।
कोई ना मुझको दिखा सका
उस परम पिता परमात्मा को।

इक दिन बोला इक नेता ने
तू तो एस सी में आता है।
समझाया उसने बहुत मुझे
पर कुछ भी समझ न आता है।

मेरे इक गुरू ने कहा मुझे
तू मूरख सा इक बच्चा है।
बड़ा न कुछ कर पायेगा
पर दिल का फिर भी सच्चा है।

इक मित्र ने कहा शामिल हो
जाते हैं जात समाजों में।
मजा बहुत ही आएगा
ऐसे सामाजिक काजों में।

अफसर बोला तू नौकर है
क्या मुझसे आँख मिलाएगा।
एक बार देखूं तुझको तो
मिटटी में मिल जाएगा।

उसका मैंने परित्याग किया
औ बढ़ ग्या और ठिकाने पर।
किस पर मैं अब विश्वास करूँ
है ऐसा कौन निशाने पर।

सबने अपनी पहचान कही
पर मेरी अब तक मिल न सकी।
सब खिले रहे मेर लब पर
मुसकान कभी भी खिल ना सकी।

देवदासी

देवदासी नाम मेरा दानवों के बीच मैं
फँसी ऐसी भाग भी सकती न आँखें मीच मैं।
कत्ल भी करती तो कितनों की अकेली औ कहाँ
दिल में आया दिन में ही लूँ कोइ खंजर खींच मैं ।

बाप ने बेचा मुझे औ माँ को थी ममता नही
करती भी तो क्या अकेली जीती आँखें सींच मैं।
कल की बातें कौन करता आज जैसा हाल है।
खाल ओढ़े चल रहे हैं आज भी मारीच का।

नाम मेरा देवदासी काम है वेश्या समान
जो दरिंदे हैं वो कहते वंश मेरा नीच का।
सुने भी तो कौन मेरी मान्यता है धर्म का।
फर्क आखिर कौन समझे धर्म और कुकर्मका।

मध्यमार्ग

जूझना गर जमाने से बीच का रस्ता निकाल।


क्यों खरीदारी में तुझको फायदा होता नही
क्यों है देवे दाम ज्यादा माल है सस्ता निकाल।
जूझना गर जमाने से बीच का रस्ता निकाल।

रहेगा कब तक पड़ा तू मुश्किलों के जाल में
मुश्किलों से जुदा हो औ हाल जो खस्ता निकाल।
जूझना गर जमाने से बीच का रस्ता निकाल।

तरबियत ऐसी हो तेरी जिन्दगी खुशनुमा हो
छोड़ दे सारे गमों को जिन्दगी हँसता निकाल।
जूझना गर जमाने से बीच का रस्ता निकाल।

साथ सबके चल अकेला कहाँ तक चल पाएगा
गुनगुनाता हुआ चल औ काम जो फँसता निकाल।
जूझना गर जमाने से बीच का रस्ता निकाल।

दिल में कोई बात जो बरसों से आकर हो रूकी
बोल दे दिल खोलकर क्यों मन ही मन कसता निकाल।
जूझना गर जमाने से बीच का रस्ता निकाल।

हैं तेरे आदर्श जो सबसे नही मिल पाएँगे
नई शिक्षा ग्रहण कर और पुराना बस्ता निकाल।
जूझना गर जमाने से बीच का रस्ता निकाल।

हो न कोई काम तो क्या सोचना भी छोड़ दें
इक पे चल के थक गया दूसरा रस्ता निकाल।
जूझना गर जमाने से बीच का रस्ता निकाल।

बारिश की बूँदें

घिरे बादाल गिरी बूँदें चहकता सा खिला है मन।
धरा जो ले रही आशीष नभ से भिंगोता है तन।
बुझाता प्यास जो सबकी वही वो दिव्य सा जल है
जिसे वो ना मिले वो कर रहा हर समय ही क्रंदन।


बिछाए जो धरा के खेत में मोहक सी हरियाली
वही रसधार देता सब दिशाओं में चला सावन।
हृदय के तार जो झंकृत करे और मन करे नर्तन
वही वो हर्ष देता बह रहा घर-घर व हर आँगन।

चमन की हर कली खिल सी चली औ देखती नभ को
वह जल मुझे इस शाम दे देवत्व का दर्शन।
हो बाल या हो युवा या औरत कि बूढ़ा हो
हर शहर औ हर गाँव का प्रमुदित हुआ जन-जन।

मैं सोचता हूँ जो मेरी औकात में नहीं

मैं सोचता हूँ जो मेरी औकात में नहीं.
इसमें जो मजा है वो किसी बात में नहीं.


मिहनत से ही हर चीज को हासिल करोगे तुम.
कुछ भी मिला कभी कहीं खैरात में नहीं.

बाकी हैं अभी जीने के कुछ और तरीके,
खो देना इसे अश्कों की बरसात में नहीं.

अपनी ही कोशिशों से बनेगा तू मुनफ़रिद,
मिलते हैं हीरे कहीं भी अफरात में नहीं।

दरिया हो गर तो आसमाँ को अब्र से भर दो,
अब कोई भी तरसे कभी बरसात में नहीं

दुनिया की हकीकत

जिसे कहते हो तुम दुनिया वो बच्चों का खिलौना है।
जो सबसे खूबसूरत है वही सबसे घिनौना है।


यहाँ हर शख्स हर इक शख्स से नफरत का आदी है।
हैं जिसके काम अच्छे उसीका पहले उठौना है।

लड़ो तुम जिसकी खातिर वही तुमसे और लड़ता है।
तुम्हारे लिए काँटे उसको फूलों का बिछौना है।

लुटाया जिसने सबकुछ दूसरों और अपनों की खातिर।
जरा कीमत तो देखो आज उसका भाव पौना है।

कभी वह भी बुलंदी से सितारे तोड़ लाता था।
न जाने क्या हुआ कैसे हुआ पर आज बौना है