Dohe

1 घनी घटा घनघोर है, घिरे हुए सब लोग।
घर घर भरा घमंड से, कितना घटिया रोग।।

2 जिद्दी जज्बा जन्म ले, जुल्म जनमता जाय।
धनी धरा बरबाद है, मानवता असहाय।।

3 देख दुर्दशा दीन की, दहला दिल दरबार।
देना जिसको ले रहा, कैसे हो उद्धार।।

4 परिवर्त्तन तो नित्य है, इसको कर स्वीकार।
गर कुछ मुश्किल लगत है, उसको भी मत टार।।

5 गरम है गरमी ज्येष्ठ की, भादों में बरसात।
हर मौसम कुछ देत है, इंसाँ को सौगात।।

6 पतझड़ पार बसंत है, गरमी फिर बरसात।
जीवन चक्र चला करे, चिंता की क्या बात।।

7 झड़ गै पत्ते झाड़ के, आया झंझावात।
परिवर्त्तन स्वीकार कर, सबसे सुन्दर साथ।।

8 धन आता जाता रहे, फिर चरित्र ना आय।
एक बार जो चल दिया, कैसे वापस लाय।।

9 किसका कितना दर्द है, कौन सकेगा जान।
जिसको होए बस वही, सकता है पहचान।।

10 काम करो कुछ काम कर, क्योंकर सोए जाग।
सदा सर्वथा रह सुखी, जागें तेरे भाग।।

11 हमने देखी चाँद पर, चोट एक गम्भीर।
हल्की तेरी चोट है, काहे होत अधीर।।

12 संत समागम सुन्दरम, रह संतों के संग। उससे पहले जान ले, उन संतों के रंग।।

13 सच्ची कथा स्विकार कर, झूठी देना छोड़।
कहता जो कहता रहे, मत दिमाग को तोड़।।

14 गाड़ी चलती जा रही, आना है तो आव।
चूक गए तुम गर अभी, आगे बस पछताव।।

15 कितने कहकर चल दिए, तुझको किसकी खोज।
उनको तू सुनता नहीं, दुविधा में हर रोज।।

16 छोटी सी ये जिन्दगी, कर कुछ ऐसा काम।
तू जब दुनिया छोड़ दे, जग ले तेरा नाम।।

17 दो पैसे की बात पर, दुश्मन बनता जाय।
थाती थर थर काँपती, उसको नहीं उठाय।।

18 जान निछावर कर दिया, जिसका ना कुछ मोल।
माल मोल का जो रहा, उसे न पाया तोल।।

19 अपना दुश्मन बन गया, फिर ढूंढे है मित्र।
सत्ता को कायम रखो, तू है बहुत पवित्र।।

20 जो ना मिलता चाहिए, मिलते को ना लेय।
मानव कितना लालची, इसको उपमा देय।।

21 दुर्बल मन की है दशा, अस्थिरता का योग।
अब पाए सत्संग को, तब दुर्जन का जोग।।

22 गोरी गम के गीत को, गाने में गमगीन।
छोटी मोटी बात भी, उसको लगे महीन।।

23 किस रास्ते पर चल रहा, ना है उसको ज्ञान।
जितना ज्ञानी बन रहा, उतना ही अज्ञान।।

24 कुदरत है सुन्दर बहुत, हमको सबकुछ देत।
इसको मत बरबाद कर, कुछ भी ना है लेत।।

25 मिलने की इच्छा लिए, निकला घर से दूर।
जब उससे मिलना हुआ, बैन दिखे मजबूर।।

26 जाएगा सब छोड़ के, इक दिन तू परलोक।
कुछ न बचेगा साथ में, सिर्फ मनाए शोक।।

27 दरद मिले तो सह लिया, खुशी का किया पान।
जीवन के सब रंग से, नही रहा अनजान।।

28 बिजली कड़की महल में, रहा न कुछ भी शेष।
खड़ी रह गई झोपड़ी, कुछ तो बात विशेष।।

29 लेना था तब ना लिया, अब क्यों हाथ बढ़ाय।
ज्ञान गठरिया छोड़ दी, अब काहे पछताय।।

30 निन्दा छोड़ो गैर की, अपना देख स्वभाव।
तुझमें ही मिल जायगा, सबसे बड़ा अभाव।।

31 तरस रहा मन तड़प कर, ताके चारों ओर।
मृग मरीचिका दिख रही, मिले कहीं ना ठौर।।

32 सारे बंधन तोड़कर, खुद में तू बँध जाय।
ऐसा बंधन और ना, तुझको बाँधे पाय।।

33 जान सके तो जान ले, खुद को ले पहचान।
परख लिया सब गैर को, खुद से ही अनजान।।

34 धरती औ अम्बर सभी, इक सत्ता के रूप।
सबकी महिमा अहम है, इक से एक अनूप।।

35 नूतन आविष्कार कर, करता है उपभोग।
ऐसी चीजें गढ़ दिया, ना कोइ उपयोग।।

36 औरों को समझा रहा, कर गलती घनघोर।
औरों का ईमान बन, खुद से है क्यों चोर।।

37 सर्वोत्तम सी शक्ति का, मिला तुझे वरदान।
आशाएँ तुझसे बहुत, पूरा कर इंसान।।

38 आज लिया कल देत है, ले उतना दे पाय।
लेता तो चुकता करो, कर्ज नही रह जाय।।

39 बीज खेत में डाल दे, वरना होए घास।
सीख प्रकृति से लिया कर, सबसे सुन्दर आस।।

40 कोई वक्ता है नही, श्रोता ना मिल पाय।
वक्ता श्रोता एक से, जैसा वैसा पाय।।

41 गाथा ज्ञान कि गाइए, ज्ञान एक वरदान।
इसकी गरिमा गूढ़ है, बनते लोग महान।।

42 सारे मानव एक हैं, सभी प्राकृतिक जीव।
मिथ्या घमंड ने किया, कितनों को निर्जीव।।

43 दिखता उसको जानकर, ना दिखते को ढूँढ़।
दूरी रख न प्रमाण से, क्यों बनता है मूढ़।।

44 प्रेम करेगा नर वही, अन्दर से कमज़ोर।
उसके वश की बात ना, जो है काठ कठोर।।

45 दुर्जन से दूरी रखो, सज्जन से पहचान।
कब परिवर्त्तन होत है, ना पाओगे जान।

46 खोता जाए नित्य कुछ, उसे लगे कुछ पाय।
सबकुछ उसका खो चला, अब काहे पछताय।।

47 हर वक्ता की होत है, श्रोता से पहचान।
ऐसा ज्ञान सिखा रहा, खुद जिससे अनजान।।

48 ज्ञानी तो मिल जायँगे, इक से बढ़कर एक।
ज्ञान पिपासा तृप्त कर, रख लो इसकी टेक।।

49 समय साथ सब सफल हो, रहो समय के संग।
जीवन के मिलते रहें, तुमको सारे रंग।।

50 लालच है इक लत बुरी, कर उतना ही खाव।
ऐसे पैदा करत है, कभी न भरता घाव।।

51 मनमानी से मान जा, मतिभ्रम ना हो जाय।
मतिभ्रम तेरा हो गया, फिर ना तू बच पाय।।

52 नैनन नदिया नीर की, अधर काँपते जायँ।
बिटिया जब रूखसत हुई, हाल न देखा जाय।।

53 मानव में सब शक्ति है, कर लेता सब काम।
फिर भी इतना मूर्ख है, लेत घनेरों नाम।।

54 सब कुछ तेरे पास है, मिला प्रकृति वरदान।
सारे संसाधन मिले, औ मस्तिष्क महान।।

55 वैज्ञानिक व्याख्या करो, तथ्यों को लो जान।
लक्ष्य हो सदा मानवी, सदा रहे ये ध्यान।।

56 द्वार चक्षु के खोल दे, तोड़ अंधविश्वास।
विश्लेषित हर चीज हो, फिर करना विश्वास।।

57 मन की मंशा मार मत, कर लो जो लो ठान।
क्या उसकी उपयोगिता, इसका भी हो ध्यान।।

58 गुरू की महिमा अहम है, जो तू लेवे जान।
उससे पहले जानिए, गुरू का कैसा ज्ञान।।

59 पाप पुण्य और संचितम्, धोखे में ना आय।
इससे है जो ऋण लिया, कैसे उसे चुकाय।।

60 प्रकृति व मानवता बचे, ऐसा करो उपाय।
तू भी भूखा ना रहे, दीन न भूखा जाय।

61 मानव कितना ही बली, एकल कुछ ना होय।
सब मिल कुछ अच्छा करो, जो चाहो सो होय।।

62 आत्मा और परमातमा, कितने सुन्दर शब्द।
जब बारी विज्ञान की, क्यों रहते निःशब्द।।

63 मर्म धर्म का जानिए, चाहे कोई नाम।
दया न जिसका मर्म हो, करे स्वयं बदनाम।।

64 ना जाने किस देश में, साजन गए लुकाय।
कारन समझ न आ सके, सौतन शायद भाय।।

65 मानव मन की मूढ़ता, होती अपरम्पार।
बड़ी चीज को मोल ले, छोटी लेत उधार।।

66 धरती ग्रह पर मिल रहा, अगम ज्ञान भंडार।
ढूढ़ लो किसी पात्र को, जीवन हो साकार।।

67 पात्र कौन पहचान हो, खुद का कर विस्तार।
धोखा देने वासते, बैठे लोग हजार।।

68 जीवों में सर्वोच्च है, काम करे है नीच।
कोई गर जो टोक दे, अँखिया लेवे मींच।।

69 वादा करके भूल गै, क्या बोला ना याद।
कोई धारा ना बनी, कहाँ करूँ फरियाद।।

70 सब कुछ तुझको दे दिया, रहा न कुछ भी पास।
मैं कितनी मजबूर हूँ, ना दे फिर भी आस।।

71 जब तक मेरे पास था, ना समझा मैं मोल।
जब तू दूर चला गया, तिरा न कोई तोल।।

72 ज़रा ज़रा सी बात पर, जरा जीर्ण हो जाय।
जब देखो देखो जहाँ, फैल ज़रायम जाय।।

73 जो ना दिक्खे ढूंढ़ता, दिखता मान न पाय।
मानव कितना मूढ़ है, कौन इसे समझाय।।

74 माने से क्या होत है, सदा हकीकत जान।
सच्चाई ना बदलती, कितना हो परिशान।।

75 विषय नही विज्ञान इक, ये है इक परिप्रेक्ष्य।
ये साधन गर साध ले, पूरा हो उद्देश्य।।

76 कला और विज्ञान में, अन्तर नही अपाार।
मानव बुद्वि रही सदा, दोनों का आधार।।

77 ऋणी प्रकृति के हैं सभी, सब कुछ इससे पाय।
रक्षा इसकी कर सदा, नष्ट न होने पााय।।

78 धरती तपती जा रही, तू सोए अनजान।
प्रलय गोद में जा रहा, क्या ली तूने ठान।।

79 मेरी मिहनत रात दिन, हो जाती बेकार।
उनकी बात अजीब भी, छप जाती अख़बार।।

80 नादानी को छोड़कर, कर आदान प्रदान।
ज्ञानवृष्टि स्वीकार कर, तू भी कर कुछ दान।।

81 सबकुछ तेरे पास है, फिर क्यों रहे गरीब।
साहस को भी साथ ले, रक्खो सदा करीब।।

82 जो भी काम करा करे, सोच जरा इक बार।
अवसर कभी सुधार का, मिले न बारम्बार।।

83 जग तेरी सम्पत्ति ना, कर न इसे बरबाद।
स्वामी ना इक घटक है, रख इसको आबाद।।

84 कोई भी परिप्रेक्ष्य हो, सत्य बहुत आसान।
सम्यक दृष्टि अगर रही, लेगा तू पहचान।।

85 क्यों तेरा भगवान है, मेरे से बलवान।
खुद की तुलना कर जरा, कौन बड़ा शैतान ।।

86 गुरू का धर्म व कर्म है, शिष्य को मिले ज्ञान।
दक्ष करे बिन दक्षिणा, गुरू की महिमा जान।।

87 सभी शिष्य सब गुरू बनें, सीखें और सिखाय।
कौशल जिसका हो जहाँ, ज्ञान बिखेरे जायँ।।

88 मानवता की रट लगा, दानवता फैलाय।
लक्ष्य प्राप्ति की राह में, भटक राह से जाय।।

89 रूप अंधविश्वास के, मिल जायँगे अनेक।
इसके स्तर भी बहुत हैं, इक से बढ़कर एक।।

90 साधन सत्य सदा रहे, कोई भी हो खोज।
मन्द कभी ना हो सके, ज्ञान दीप्ति का ओज।।

91 मन मालिन्य मिटा सको, ऐसा करो प्रयास।
वैर भाव सब दूर हों, मन में रहे मिठास।।

92 तोड़ रूढ़ियों को चलो, आगे कदम बढ़ाय।
औरों को भी ले चलो, आगे पाठ पढ़ाय।।

93 मानक अपना जान लो, खुद ही तय कर डाल।
खुद बन अपना पारखी, रहे न कोइ मलाल।।

95 दीन दीनतर बन चला, धनी धरे धन धान्य।
बातें ऐसी लग रहीं, सबको ही क्यों मान्य।।

96 एक नही सौ गढ़ दिए, मानव ने भगवान।
किसका कितना काम है, किसको है पहचान।।

97 तेरा भगवन् बड़ा है, मेरा कितना छोट।
दोनों मिलकर जान लें, क्यों डाले है ओट।।

98 जो तेरे वश ना रहा, ईश्वर को दे जाय।
जब उसको हासिल करे, सूची से कट जाय।।

99 पुनर्जन्म कुछ मानते, ना मानें कुछ लोग।
पैदा होएँगे सभी, गर थोड़ा भी योग।।

100 नदिया वो ही रहत है, पानी बदलत जाय।
परिवर्त्तन तो नित्य है, तू भी बदले जाय।।