पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से जबसे देश में लिव रिलेशनशिप के प्रचलन हुआ है खासकर शहरों के युवा
इसके प्रति बहुत आकर्षित हुए हैं। प्राचीन भारतीय संस्कृति में मुख्यतः एकल विवाह का प्रचलन था,
जोअरेंज्ड मैरिज के रूप में संपन्न होता था एवं जिसका
जीवनपर्यंत निर्हाव किया जाता था, चाहे किसीको
किसी के ही मत्थे क्यों न मढ दिया जाय।
मगर आज लिव इन रिलेशनशिप का कॉन्सेप्ट ऐसा है जिसमें बिना शादी की सामाजिक एवं पारिवारिक
जिमेदारियों के ही शादी के जैसा आनंद लेने का प्रावधान है। इसमें जीवन भर साथ निभाने का कोई बंधन
नहीं होता और न ही अलग होने के लिए तलाक जैसे कानूनी नियमों को मानना जरूरी होता। केवल एक आसान
ब्रेक अप समारोह से दोनों अलग हो सकते हैं और फिर किसी नए लिव इन में पदार्पण कर सकते हैं।
मगर भारतीय पारंपरिक मानसिकता उसमें भी दखल देने से बाज नहीं आती। लिव इन रूपी चैंपियनशिप में
एंट्री तो ली जाती है जिम्मेदारियों एवं बंदिशों से बचने के लिए, ताकि जब चाहे उस अघोषित एवं
अपंजीकृत अनुबंध से निकला जा सके। मगर जीवन के इस आनंदमय नवोन्मेषित सांस्कृतिक प्रावधान के घातक
परिणाम तब आते हैं जब दोनों में से कोई एक सामने वाले के ब्रेक अप के अधिकार का हनन करते हुए कुछ
महीनों या कुछ साल के लिव इन को जीवनपर्यंत विवाह के रूप में परिवर्तित करने का लालच पाल बैठता है।
ऐसे में सामने वाला खुद को ठगा महसूस करता है और उसे लिव इन का रिश्ता सुनियोजित रूप से फेंका हुआ
एक जाल लगता है, जिससे उसे मुक्त नही होने दिया जाता है। ऐसे में घर में कलह होता है और दो आजादखयाल
लोगों में से किसी एक के द्वारा दूसरे की आजादखयाली को गुलाम बनाने के प्रयास में एक और अफतबनुमा
घटना घट जाती है। मुक्त विचारों का युवा अचानक इतना पारंपरिक और अधिकारबोधक बन जाता है कि किसी की
जान लेने या देने के लिए तक तैयार हो जाता है।
यह संकल्पना जिस यूरोप और अमेरिका से आई, वहां के लोग मानसिक रूप से उस मौखिक अनुबंध के लिए तैयार
भी हैं और उसका पालन भी करते हैं; वे केवल एक मेक अपबौर ब्रेक अप की वजह से किसकी जान के दुश्मन
नहीं बनते। जबकि आधुनिक बनने की नाकाम नकल करता हुआ भारतीय युवा न तो आधुनिक बन पाता है और न ही
पारंपरिक और लिव इन की इस ढुलमुल भूलभूलैया में दोनों की जिंदगी बर्बाद कर लेता है।
विज्ञान एवं तकनीक का मानव जीवन पर प्रभाव
मनुष्य का इतिहास लगभग 5000 साल पुराना है. प्राचीन मानव प्रजाति का इतिहास, जिससे वर्त्तमान मानव
प्रजाति होमोसैपियन विकसित हुई है, लगभग 2 लाख साल पुराना है। कुदरत के तमाम थपेड़े सहते हुए हम यहाँ
पहुंचे हैं जहाँ एक दूसरे से दूर बैठे हुए वीडियो कॉलिंग और चैटिंग कर
सकते हैं। जैसे जैसे मनुष्य
ने अपनी जरूरतों के लिए दिमाग का उपयोग करना शुरू किया, वैसे वैसे उसकी खोपड़ी, जी हाँ खोपड़ी, बढ़ती
गई और उसके मष्तिष्क का वजन 1.3 से 1.4 किलोग्राम है, जिसमे आज लगभग 86 अरब न्यूरॉन्स हैं और उसकी
क्षमता 10 लाख GB है के बराबर है।
पृथ्वी पर सबसे पहले जीव का विकास लगभग 377 करोड़ वर्ष पहले हुआ, जो एककोशिकीय होते थे। पृथ्वी पर आज
तक जितनी प्रजातियाँ विकसित हुई हैं उनमें से लगभग 99 प्रतिशत प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं।
पिछले 500 सालों में ही लगभग 900 प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं। असल में यह भी एक प्राकृतिक
प्रक्रिया है। शोध एवं प्रेक्षण से पता चलता है किसी प्रजाति के विलुप्त होने के क्या कारण हैं। इन
कारणों में से मुख्य हैं अत्यधिक जलवायु परिवर्तन और विकसित होने में असमर्थता . अब तक का सबसे
विशालकाय और शक्तिशाली जीव डाइनोसॉर लगभग 6.5 करोड़ साल पहले विलुप्त हो गया, जिसका कभी पृथ्वी पर
कब्जा हुआ करता था।
आखिर ये सब बातें हमें कैसे पता चलती हैं? जीवाश्मों के डेट का पता लगाया जाता है रेडियो कार्बन
डेटिंग सिस्टम से। हर जीव का मुख्य उद्देश्य होता है उत्तरजीविता और प्रजनन। मानव प्रजाति भी
बिल्कुल उसी तरह था और आज भी है। मगर मनुष्य बाकी जीवों से इतना अलग कैसे है? पिछले वाक्य में मैंने
प्रश्न किया "कैसे" न कि "क्यों।" आखिर क्यों? क्योंकि जब भी हम "क्यों" प्रश्न पूछते हैं तो उसका
इशारा उसके उद्देश्य की तरफ होता है. जैसे "आप खाना क्यों खाते हैं?" - जीने के लिए, जो कि एक
उद्देश्य है. आप कार क्यों नहीं खरीद लेते? क्योंकि मेरे पास उतने पैसे नहीं हैं, जो कि एक कारण है.
ये सब मानवनिर्मित प्रश्न एवं उत्तर हैं. लेकिन जब किसी प्राकृतिक घटना की बात आती है तो हाँ कोई
उद्देश्य नहीं होता, केवल एक प्रक्रिया होती है, जो सरल या जटिल हो सकती है. यह सरलता और जटिलता भी
हमारी समझ की शक्ति, क्षमता या सहूलियत पर निर्भर करती है. कभी-कभी हमें ऐसा भी लगेगा कि प्राकृतिक
घटनाओं का कोई उद्देश्य भले ही न हो, लेकिन कारण अवश्य होता है. जैसे ज्वालामुखी में विस्फोट क्यों
होता है? क्योंकि उसके अंदर गर्म लावा और उच्च तापमान के साथ कुछ न कुछ विक्षोभ होता है. लोहा लकड़ी
से मजबूत क्यों होता है? क्योंकि उसका अंतर-आणविक बल अधिक होता है. असल में यह कार्य कारण सम्बन्ध
भी एक प्रक्रिया ही होती है, जिसे "कैसे" प्रश्न की सहायता से समझा जा सकता है. एरिज़ोना स्टेट
यूनिवर्सिटी के भौतिकी के प्रोफ़ेसर लॉरेंस क्रॉउस कहते हैं कि जब हम विज्ञान में ""क्यों" प्रश्न
करते हैं, तो उसका अर्थ "कैसे" होता है. उदाहरण के तौर पर अगर अगर हम प्रश्न करते हैं कि सूर्य की
सतह का तापमान 6000 डिग्री सेंटीग्रेड क्यों है, तो वास्तव में हम जानना चाहते हैं कि किस प्रक्रिया
के फलस्वरूप उसका तापमान इतना हुआ, अभी भी बरकरार है और ऐसा कब तक रहेगा. और कुदरती प्रक्रिया का ही
परिणाम है कि पृथ्वी पर जीवों की उत्पत्ति और उनके विकास के लिए उपयुक्त पर्यावरण बन पाया.
मनुष्य ने अपनी उत्तरजीविता के लिए दिमाग का इस्तेमाल अन्य प्रजातियों की अपेक्षा ज्यादा किया और
इसीलिए उसका दिमाग दिन दूना और रात चौगुना बढ़ता गया। उसने नित नए अविष्कार किये, जिससे उसका जीवन
आसान होने लगा। पत्थर के औजार से लेकर पहिया और बैलगाड़ी तक बना डाले उसे। फिर मशीनें बनाईं, विभिन्न
प्रकार के ईंधन खोज डाले। औद्योगिक क्रांति हुई, उत्पादन क्षमता बढ़ी और खुशहाली भी आई। विभिन्न
धातुओं का उत्पादन और उपायोग हुआ।
जब आप लोहे की बनी किसी चीज का उपयोग करते हैं तो क्या कभी सोचते हैं कि लोहे का इतना उत्पादन कैसे
सम्भव हो पाता है? क्या कभी आपने बेसेमर भट्टी के बनानेवाले बेसेमर का धन्यवाद किया? टेप रिकॉर्डर
से शुरु कर आज एमपी 3 से लेकर एमपी 4 तक के फॉर्मेट के गाने सुने जा रहे हैं। क्या कभी आपने क्रूर
आक्रांताओं की जगह, जिन्हें उनकी क्रूरता के लिए महान की संज्ञा दी गई, इन आविष्कारों के विकास के
इतिहास और उनके आविष्कारकों के कठिन परिश्रम को समझने की कोशिश की?
जिस धरती पर हम रोज रहते हैं क्या उसकी रचना और संरचना बताने वालों के सतत परिश्रम को समझने का का
प्रयास किया गया? जो चीजें हम उपयोग में लाते हैं उनके बनाने वाले का धन्यवाद हम क्यों नही करते?
मनुष्य स्वभावतः कर्मठ, क्रियाशील और कृतज्ञ प्राणी है। लेकिन जब उसे पता नही होता कि जिस आविष्कार
का वह नित्य एवं निरंतर उपयोग कर रहा है उसका कारण कौन है, वह भय और अज्ञानतावश किसी अस्तित्त्वहीन
काल्पनिक चीज का आभारी होकर दिमाग को भारी करने लगता है।
क्या हम कभी महीने या साल में भी सोचते हैं कि आर्यभट, अल बरुनी, यूक्लिड इत्यादि महान विद्वानों के
किये कार्यों से लेकर कोपरनिकस और केपलर को कितनी मशक्कत करनी पड़ी होगी धरती की परिधि, घूर्णन और
परिक्रमण से लेकर ग्रहों की गति के नियम प्रतिपादित करने में? रुडोल्फ डीजल ने जिस इंजन को और
विकसित कर ज्यादा उपयोगी बनाया, उसके पहले कितने लोगों ने उसका निर्माण करने में काम किया था? क्या
कभी आपके दिमाग में यह बात आई कि धन्यवाद ज्ञापन के लिए अपनी कार के पीछे कभी रुडोल्फ डीजल का नाम
छपवा लें? कारपेंटर अपने नंगे हाथों से अच्छी और ज्यादा चीजें बना सकता है या आधुनिक मशीनों की मदद
से? ट्रैक्टर आने के बाद न केवल खेती आसान हुई, बल्कि जोत की जमीन में भी बढ़ोत्तरी हुई। असल में आज
की धरती- जी हाँ, आज की धरती, धरती का निर्माण तो बहुत पहले हुआ था, लगभग 450 करोड़ वर्ष पहले, मगर
यह धरती उन चीजों की धारक नहीं थी, जो आज उसके पास हैं, - संसाधनों का एक बड़ा खजाना है, जिसे हमें
एक दिन खा जाना है या हो सकता है कि निरंतर लगभग ढाई लाख किलोमीटर प्रति घंटे की चाल से फैलते हुए
ब्रह्माण्ड में कोई घटना हो जाए जिससे धरती किसी और रूप में प्रभावित हो जाए. धरती पर मौजूद इन
प्राकृतिक संसाधनों में हम विज्ञान एवं तकनीक के सहारे अभीष्ट उपयोगिता का सृजन कर उपयोग कर पा रहे
हैं।
आज आपके एक बटन दबाते ही आपका घर रोशन हो जाता है। क्या कभी स्विच दबाते वक्त आपको थॉमस एडिसन और
टेस्ला की याद आती है? उन्हें पूजने की जरूरत बिलकुल नही हैं, मगर इस कृत्रिम रोशनी का श्रेय तो
उन्हें ही मिलेगा न? थॉमस एडिसन ने बल्ब के अलावा अनेक और आविष्कार किये थे जिसका हर इंसान अपने
घरेलू जीवन में उपयोग करता है. और कितना संघर्ष किया था टेस्ला ने टेस्ला टरबाइन, इंडक्शन मोटर और
अल्टेरनेटिंग करेंट बनाने में? इसलिए जरूरत है उस मानव संघर्ष के इतिहास को समझने की जिसने हमारे
जीवन को हर तरह से खुशहाल बनाया। वैज्ञानिक अविष्कारों का यह सिलसिला निरंतर जारी है जिससे हम नित
नए उपकरणों का उपयोग करते जा रहे हैं. महान असल में वे नही होते जिन्हें हम इतिहास की किताबों में
पढ़ते आये हैं, जो अपनी प्रजा को गुमराह कर अपने फायदे के लिए दुसरे की प्रजा का कत्लेआम करते हैं.
महान वे लोग होते हैं जो अपने कठिन परिश्रम और नवाचार से आनेवाली सदियों की ज़िंदगी को रोशन करते
हैं।
क्रूरता और नरवध की सूची में शीर्ष स्थान पाने वाले चंगेज खान ने एशिया के बड़े भूभाग पर शासन किया,
लेकिन आज वहाँ न तो अच्छी सड़कें हैं और न ही रेल लाइन, आधुनिक तकनीक की तो बात ही छोड़िए। आखिर
क्यों? क्योंकि उन्होंने कभी विज्ञान और तकनीक से नाता नही जोड़ा। भारत की तो बात ही क्या! यहाँ तो
प्राकृतिक संसाधनों का बिलकुल ही विलक्षण उपयोग होता आया है.
हम जिन उपग्रहों के माध्यम से आज तमाम सुविधाएं हासिल कर पा रहे हैं, कितने सालों का कठिन परिश्रम
है उनका आधुनिक विकास! आखिर यह सब विज्ञान और तकनीक का ही तो प्रयास है कि जब आप ऑपरेशन थिएटर में
होते हैं तो आपके शरीर के हर पैरामीटर को मशीनों से देखा जाता है और सर्जरी में चींटी काटने के
बराबर भी दर्द नही होता, वरना उन्नीसवीं सदी में तो सर्जरी मौत का पर्याय होती थी। दर्द का तो हाल
ही मत पूछिए, इंफेक्शन से ही अधिकतर लोग मर जाते थे। फिर लुई पाश्चर की जर्म थ्योरी और अन्य
वैज्ञानिकों के द्वारा बेहोशी की दवा की खोज से सर्जरी कम दर्दनाक और अधिक सफल होने लगी। और तो और
आजकल तो मनुष्य खोपड़ी खोलकर उससे ट्यूमर भी निकाल पा रहा है मगर अफसोस कि दिमाग में डाले हुए झूठ को
मानव के न्यूरॉन सिस्टम ने इस तरह जकड रखा है कि उसे निकलना डॉक्टरों के वश की बात नहीं. अगर किसीने
पोलियो और चेचक का टीका न बनाया होता, तो आज इन बीमारियों से मुक्ति मिलती? क्या कभी आपने जहमत उठाई
डेविड हिल्बर्ट के गणितीय योगदान को समझने की जिसने आइंस्टाइन की उनके भौतिकीय सिद्धांतों में मदद
की थी। असल में इतिहास में ग्रेगोरी पेरेलमन जैसे लोगों का भी हिस्सा होना चाहिए, जो मिलियन डॉलर के
गणित के प्रश्न को हल करने के बाद एक रुपया लेने से मना कर देते हैं। जरूरत रामानुजन, ऑयलर,
आर्किमिडीज के योगदान को समझने की भी है, जिनके अथक और गुमनाम परिश्रम से आज हम सुख-सुविधा भरी
जिंदगी जी रहे हैं।
और मजे की बात तो यह है कि अमेरिकन स्पेस एजेंसी नासा के वैज्ञानिकों द्वारा जोड़ा गया और 12 अगस्त
2018 को छोड़ा गया लगभग 7 लाख किमी प्रति घण्टे की रफ्तार से चलने वाला सोलर पार्कर प्रोब लगभग १०
लाख डिग्री सेंटीग्रेड के तापमान से धधकते हुए सूर्य के कोरोना (ये सूर्य का कोरोना है, धरती वाला
नही) को छू चूका है चुका है और उसकी फोटो भी भेज रहा है। विदित हो कि सूर्य के सतह का तापमान लगभग
6000 डिग्री सेंटीग्रेड है और उसके वायुमंडल का लगभग १० लाख डिग्री सेंटीग्रेड, जो हमें धधकता हुआ
दिखाई देता है. यहाँ तक कि यह अंतरिक्षयान सूर्य के कोरोना की आवाजें भी भेज रहा है। क्या किसीने
कोशिश की उस आवाजों को आदिम अज्ञानी मनुष्यों द्वारा सुझाई गई अपने कर्णप्रिय आवाजों से मिलान करने
की?
इन तमान अविष्कारों से यह तो साफ़ हो गया होगा कि मनुष्य के दिमाग ने जो भी वैज्ञानिक आविष्कार किये
हैं और आज भी कर रहे हैं, उनसे पूरी पृथ्वी के लोगों का कम ओ बेश किसी न किसी रूप में फायदा हो रहा
है. प्राकृतिक संसाधनों में उपयोगिता का सृजन आसान हो गया है और इसकी वजह से सबकी जिंदगी खुशहाल हो
रही है. ऐसे में जरूरत इस बात की है कि सब वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करें और मानव कल्याण
में विज्ञान की सहायता से अपना एवं अन्य लोगों के विकास में मदद करें. मगर अफ़सोस यह है कि
आज विज्ञान के युग में भी लोग तर्कहीन बने हुए हैं और आधारहीन विचारों के शिकार बनकर विज्ञान की जगह
अपनी कुंठाओं को अधिक महत्त्व दे रहे हैं. लोग आज भी ऐसे अवैज्ञानिक विचारों के शिकार बने बैठे हैं,
जिन मनगढंत बातों को किसीने हजारों साल पहले बिना किसी आधार के कह दी और अज्ञानी मनुष्य ने उन
आधारहीन बातों को सच मान लिया. विज्ञान के समक्ष जैसे नई जानकारी प्रस्तुत होती है, वह खुद को
अद्यतन कर लेता है और उसके आधार पर मानव कल्याण के लिए नए आविष्कार प्रारंभ कर देता है. लेकिन आज भी
रूढ़िवादी लोग अपने हठधर्मी विचारों के कारण अज्ञानी मनुष्यों के द्वारा हजारों वर्षों पहले कही गई
निराधार बातों को अपनी सबसे बड़ी थाती मानकर बैठे हुए हैं, जो उनके शारीरिक या मानसिक परिश्रम की
उपलब्धि नहीं हैं, बल्कि उनपर उनकी अज्ञानता के कारण थोपी गई हैं. दुर्भाग्यवश रूढ़िवादी लोग अपनी और
अपने नजदीकी लोगों के जीवन का संचालन उन्ही के सहारे करे रहे हैं जिससे न तो उनका फायदा है न ही
किसी और का. ऐसे लोग मनुष्य की हर उपलब्धि का श्रेय अस्तित्त्वविहीन अलौकिक कल्पना को देने के आदी
हो चुके हैं, जो कि न केवल नैतिक रूप से गलत है बल्कि भविष्य में भी उन्हें अन्धकार में रखने का
सबसे मजबूत औजार है. यह समझ से परे है कि पृथ्वी का सबसे तेजदिमाग प्राणी इतना अतार्किक क्यों है कि
हर भौतिक काम का श्रेय किसी न किसी अस्तित्त्वविहीन अलौकिक कल्पना को देता आ रहा है? आज के
वैज्ञानिक युग में ऐसी सोच केवल चिंतनीय ही नहीं बल्कि पूरी मानव सभ्यता के लिए एक
गभीर चुनौती भी है.
बौद्ध धर्म एवं अशोक विजय दिवस
हाल ही में दशहरा संपन्न हुआ। पूरे देश में धूम धाम से मनाया गया। उम्मीद है आपने भी अपने हिस्से का आनंद लिया होगा। साथ में शारदीय नवरात्रि भी थी, कुछ अपेक्षाकृत कम भूक्खड़ लोगों ने व्रत भी रखा होगा।
असल में साथ में एक और त्योहार था। कुछ लोगों ने ध्यान भी दिया होगा। शारदीय नवरात्र में एक त्योहार होता है इस अवसर पर कि इसी दिन आठ दस भुजाओं वाली अस्त्र शस्त्र में पारंगत वीरांगना देवी दुर्गा ने रंभ और भैंस के मिलन से पैदा हुए राक्षस महिष को मारा था।
अब ये मत पूछिएगा कि रंभ ने भैंस के साथ संभोग करके महिष को कैसे पैदा कर दिया।
कृपया ये भी मत पूछिएगा कि एक औरत की दो से अधिक भुजाएं कैसे हो सकती हैं।
ये तो बिलकुल मत पूछिएगा कि हजारों साल पहले एक महिला ने अकेले मैसूर के राजा महिष को कैसे हरा दिया, जब एक भारतीय महिला का मुख्य काम था चूल्हा चौका करना और कही कहीं तो पति की मौत के साथ वे भी पति के साथ चिता में जल भी जाती थीं।
इन्हीं दस दिनों में एक और त्योहार मनाया जाता है। उसका अवसर जरा अलग है। कहा जाता है कि राम ने दस सिर वाले रावण को मारा था इसलिए हम भी उसी के पुतले पर निशाना लगाते हैं। अब रावण के दस सिर वाले पुरातन जीवविज्ञान की तकनीक के बार में पूछकर मुझे शर्मिंदा न करें। तो कुल मिलाकर हुआ विजयदशमी। यानी विजय वाली दशमी की तिथि।
देवी दुर्गा ने तो दस दिन के अथक परिश्रम से महिषासुर का वध किया था इसलिए यहां विजयदशमी सार्थक लगती है मगर राम ने तो रावण को एक ही दिन मार दिया होगा; मारने के लिए दस दिन के परिश्रम का कुछ संबंध रहा हो, इसके बारे में बिलकुल अनभिज्ञ हूं। जो भी हो, इन दोनों में से कम से कम एक तो विजयदशमी अवश्य है।
इन दोनों त्योहारों का संयोग या अंतर्संबंध क्या है, इसके बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं है मगर इस बात की हृष्टपुष्ट खबरें हैं कि इसी दिन एक और पर्व मनाया गया, जिसका नाम है अशोक विजयदशमी। इस त्योहार के मनाने का अवसर कुछ अलग है। प्राचीन काल में सम्राट अशोक ने कलिंग विजय की युद्ध के विनाश को देख कर उनके दिल को बहुत पीड़ा हुई जिससे उनका ह्रदय परिवर्तन हुआ सम्राट अशोक ने दशमी को ये घोषणा कि आज के बाद मैं कभी हथियार से विजय नहीं करूँगा। मैं हथियार को त्यागता हूँ आज के बाद केवल धम्म विजय करूंगा और उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया। इतना ही नहीं उन्होंने अपने बेटे-बेटियों को दूसरे देशों में बौद्ध धर्म के प्रचार -प्रसार के लिए भेज दिया। कुछ लोगों का कहना है कि तभी से अशोक विजय दशमी मनाई जाती है।
मौर्यवंश के अंतिम शासक बृहद्रथ के सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने पाटलिपुत्र की परेड में अपने ही राजा की हत्या कर दी थी। उसके बाद पुष्यमित्र शुंग साकेत यानी वर्तमान अयोध्या गया था और वहां दो यज्ञ करवाए थे। इसके प्रमाण उसके परवर्ती सम्राटों के शिलालेख में मिलते हैं।
कुछ विद्वानों का कहना है कि पुष्यमित्र ने अशोक विजयदशमी को विजय दशमी के रूप में मनाने लगा और मौर्यवंश के दसों राजाओं का सिर एक ही धड़ पर रखकर उन्हें जलाने लगा और तभी से विजय दशमी की शुरुआत हुई। यानी कुछ विद्वानों के अनुसार पुष्यमित्र शुंग ने अशोक विजय दिवस से अशोक शब्द हटाकर उसे विजय दशमी बना दिया। तभी से पूरा देश उस दशमुखी पुतले पर निशाना साधता आ रहा है।
बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर ने हिंदू धर्म में फैले जातिवादी भेदभाव और शोषण से तंग आकर मन बना लिया था कि वे हिंदू धर्म में पैदा तो हुए हैं मगर मरेंगे नहीं। इसी सिलसिले में उन्होंने कई धर्मों का अध्ययन भी किया और कई धर्मों के धर्मगुरुओं से निमंत्रण भी मिला। परंतु अंततः बाबासाहेब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाने का फैला किया और 14 अक्टूबर 1956 को लाखों समर्थकों के साथ नागपुर में बौद्ध धर्म की दीक्षा ली और बौद्ध मतावलंबियों के लिए 22 प्रतिज्ञाएं लिखीं। इस अवसर को नाम दिया गया धम्मचक्र प्रवर्तन दिवस और तबसे दुबारा अशोक विजय दशमी मनाई जाने लगी। आज पुरे देश में अशोक विजय दशमी मनाई जा रही है और कहीं कहीं तो लाखों लोग अशोक विजय दशमी के अवसर पर बौद्ध धर्म स्वीकार भी कर रहे हैं।
कोई भी धर्म केवल कुछ नियमों का संकलन मात्र नहीं होता बल्कि उन नियमों एवं वहां की भौगोलिक परिस्थितियों के सम्मिलन से बनी एक संस्कृति भी होती है। सांस्कृतिक रूप से देखा जाय तो बौद्ध धर्म हिंदुओं के काफी करीब है, जबकि नियमों के हिसाब से बिल्कुल उलट। इसका मुख्य कारण है कि बौद्ध धर्म का भारतीय परिवेश में पैदा होना।
मगर धार्मिक नियमों, जीवन यापन के तरीकों, नैतिक मूल्यों एवं अन्य मनुष्यों के प्रति व्यवहार के हिसाब से बौद्ध धर्म हिन्दू धर्म से कितना अलग है, व्यवहारिक रूप में और सरल शब्दों में समझने का प्रयास करते हैं। बाकी विस्तृत जानकारी के लिए तो त्रिपिटक जैसे बौद्ध साहित्य हैं ही। बौद्ध धर्म के नियमों का सार अगर देखा जाए तो हिंदू धर्म में फैले कर्मकांड, पाखंड, अंधविश्वास, जातिगत भेदभाव एवं उससे जनित शोषण के विरोध के रूप में दिखता है, जिसे जरा अलग अंदाज में समझते हैं:
बौद्ध धर्म दुनिया का अकेला धर्म है जो किसी को बिना कोई आर्थिक लालच दिए और बिना हिंसा के पूरी दुनिया में फैला।
बौद्ध धर्म अकेला ऐसा धर्म है जिसने राजाओं को अपने बच्चों को भिक्खू - भिक्खुनी बन कर अहिंसा के धर्म का प्रचार करने के लिए प्रेरित किया।
बौद्ध धर्म में बंदर को उड़ाकर सूरज को नही निगलवाया गया।
बौद्ध धर्म में बंदरों से पुल बनवाने का प्रावधान नहीं है।
बौद्ध धर्म समंदर को डरा धमकाकर और सुखाकर और फिर अनुनय विनय करवाकर उससे किसी राजा से माफी मंगवाने की तकनीक का समर्थन नहीं करता।
बौद्ध धर्म बिना किसी ढांचे, बिना किसी इंजन एवं ईंधन के पुष्पक विमान उड़ाने के झूठे सपने नही दिखाता।
बौद्ध धम्म किसी पुरुष के धड़ पर दस सिर लगाकर उसे राक्षस और किसी महिला के आठ दस हाथ बनाकर देवी बनाने जैसा भेदभाव नहीं फैलाता।
बौद्ध धम्म ऐसी अवैज्ञानिक शिक्षा भी नहीं देता और न ही झूठे ख्वाब दिखाता है कि कोई देवता या राजा किसी भैंस के साथ बच्चे पैदा करने के सपने पालने लगे।
बौद्ध धर्म आत्मा, परमात्मा और ईश्वर जैसी काल्पनिक एवं मनगढ़ंत कहानियां को कोई स्थान नहीं देता।
बौद्ध धर्म वैज्ञानिक सोच विकसित करने के लिए प्रेरित करता है और अनुभव के आधार पर निष्कर्ष निकालने की गुंजाइश देता है।
बौद्ध धर्म जन्म या कर्म के आधार पर मनुष्यों में भेदभाव की इजाजत नहीं देता।
बौद्ध धर्म मनुष्यों का वर्गीकरण वर्णों, जातियों या गोत्रों में नहीं करता।
बौद्ध धर्म किसी की परछाई किसी के ऊपर पड़ने से उसके अपवित्र होने की कल्पना नहीं करता।
बौद्ध धर्म किसी के मटका छू लेने से उसे पीट पीटकर मार देने की गुंजाइश तक नहीं देता।
बौद्ध धर्म करुणा, भाईचारा, वैज्ञानिक सोच एवं मानवता का पाठ पढ़ाता है, किसी के ऊपर किसी की श्रेष्ठता का नहीं।
बौद्ध धर्म काल्पनिक एवं मनगढ़ंत कहानियों द्वारा फैलाए गए डर से बाहर निकालता है।
बौद्ध धर्म छुआछूत, ऊंचनीच एवं किसी भी प्रकार के भेदभाव का समर्थन नहीं करता।
बौद्ध धर्म शोषण एवं अतिशय संचय का विरोध करता है।
बौद्ध धर्म अहिंसा एवं सभी मनुष्यों में सद्भावना का पाठ पढ़ाता है।
बौद्ध धर्म नारों से ऊपर उठकर अपने मूल्यों को अंगीकृत करने में विश्वास रखता है।
बौद्ध धर्म आचरण, त्याग एवं नैतिक मूल्यों के आधार पर हृदय परिवर्तन में विश्वास करता है और युद्ध एवं हिंसा करने के लिए प्रेरित नहीं करता।
संसाधन उपयोगिता और विज्ञान
धरती, धरती के ऊपर या उसके भीतर वह हर उस चीज को, जो हमारे काम आ सकती है, यानी हम जिसे अपने लिए उपयोग कर सकते हैं, संसाधन कहते हैं। इसमें मिट्टी, हवा, पानी, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, हाइड्रोजन, सोना, चांदी, पीतल, अभ्रक, शीशा, घास, फूस, गुड़, गोबर, केंचुआ, गन्ना, घास और यहां तक कि अन्य सभी जीव भी शामिल हैं। इन संसाधनों में से अधिकतर चीजें हजारों वर्षों से हमारी धरती पर विद्यमान हैं।
कुछ तो लाखों करोड़ों वर्षों से उपलब्ध हैं। यहां तक कि धरती पर मानव के उद्विकास से पहले कई चीजें विद्यमान थीं। ये चीजें आज हमारे लिए संसाधन हैं। मगर पहले ये सारी चीज़ें हमारे लिए संसाधन नहीं थीं क्योंकि पहले हम खुद नहीं थे, हमारी पूर्ववर्ती प्रजातियां थीं और यहां तक कि हमारे उद्विकास के बाद भी इनमें से कई चीजें हमारे लिए संसाधन नहीं बन पाईं क्योंकि ये चीजें हमारे लिए उपलब्ध तो थीं मगर इनमें हमारे लिए उपयुक्त उपयोगिता नहीं थी। इसके तमाम उदाहरण मिल जायेंगे। जैसे आदिमानव कुछ सीमित चीजों का ही उपयोग कर पाता था। उसका जीवन दर्शन था: जाग उठे तो चल दिए, थक गए तो सो लिए। हमने हसरतों के दाग आंसुओं से धो लिए। वह इस जीवन दर्शन का अनुयायी तो था, मगर उसके पास आंसुओं या संतोष की महिमा का बखान करने के लिए भाषा एवं भाव नहीं थे।
भाषा एवं उसके माध्यम से विभिन्न भावों को व्यक्त करने की क्षमता का विकास भी समय के साथ धीरे धीरे हुआ। और फिर इस प्रकार की शायरी एवं कविता का उदय हुआ। सिलिका और सोडियम कार्बोनेट तो हमारे पास बहुत पहले से थे, मगर शीशे का पहली बार दर्पण के रूप में इस्तेमाल तुर्की में लगभग 8000 साल पहले किया गया। इसी प्रकार धरती के गर्भ में अनेक धातुएं थीं मगर उनसे हंसिया, खुरपी, कुदाल, तार, प्लेट, प्रिंटिंग प्रेस, मशीन, पंखे, ट्रैक्टर, जेसीबी, जहाज, वायुयान इत्यादि का निर्माण कुछ शताब्दी पहले ही शुरू हुआ। यहां तक कि संगठित खेती की शुरुआत भी लगभग 10,000 साल पहले हुई।
हमारी धनी धरा पर वस्तुएं तो बहुत हैं, मगर कोई भी वस्तु हमारे लिए संसाधन तब बनती है, जब उसमें उपयोगिता का निर्माण होता है। मगर आखिर इस उपयोगिता का निर्माण होता कैसे है, जो लगभग हर चीज को हमारे लिए उपयोगी बना देती है? हाइड्रोजन तो ब्रह्मांड की सबसे पुरानी गैस है, मगर इस हल्की गैस से गुब्बारा और यहां तक कि वायुयान काफी बाद में बना। नाइट्रोजन भी वायुमंडल में बहुत पहले से है मगर हमने उसे संगठित करके पौधों के लिए खास पोषक तत्व बना दिए। पहाड़ों में संगमरमर भी हजारों सालों से दबा था, मगर हमने उससे सुंदर मूर्तियां और महल काफी बाद में बनाए। आखिर क्यों? क्योंकि उनके अंदर हमारे लिए उपयोगिता नहीं थी और न ही उन्हें उपयोग करने के लिए तकनीक।
जैसे जैसे विज्ञान और तकनीक का विकास हुआ, वैसे वैसे हम धीरे धीरे हर चीज में उपयोगिता-सृजन करते हुए उसे संसाधन बनाते गए। और यह सिलसिला अनवरत जारी है। जैसे धातुएं तो शुरू से ही बिजली की सुचालक रही होंगी, मगर उनकी उपयोगिता हमें तब जायद महसूस हुई, जब बिजली का आविष्कार हुआ और फिर हमने एक के बाद एक चीजें बना डालीं, जो आज हमारी शान में नए नए हीरे जड़ रही हैं। बिजली के तार बने, मोटर, ट्रांसफार्मर और पंखे बने। यहां तक कि बैटरी वाली कारें भी बन रही हैं।
सुचालक धातुएं तो धरती के गर्भ गृह में लाखों सालों से पड़ी थीं। हमर हमने उनमें से कम सुचालक अर्थात अर्धचालक को चुनकर उनसे चिप, आइसी और ट्रांजिस्टर बना डाला जिसपर आज की इलेक्ट्रॉनिक्स की पूरी दुनिया आधारित है और इसकी बदौलत आजभार हाथ में डिजिटल उपकरण मौजूद है, जो हमारे जीवन को आसान बना रहे हैं।
इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगें तो हमेशा से विद्यमान थीं मगर काफी बाद में हमने उन्हें पालतू बनाकर अपने लिए उपयोगी बनाया। जंगल और नाना प्रकार के पेड़ तो बहुत पहले से ही उपलब्ध थे, मगर उससे आरी और मशीनों से चीरकर चारपाई और पलंग बनाने में हमें लाखों साल लगे। मिट्टी तो धरती के ऊपरी स्तर के ठंडा होने की प्रक्रिया में बहुत पहले बन गई थी, मगर हमें लाखों साल लगे उस मिट्टी को सही आकार देकर और पकाकर ईंट बनाने में, जिससे आज हम पक्का मकान बना पा रहे हैं। खेती तो मनुष्य हजारों साल से कर रहा है, मगर पैदावार में वृद्धि तब हुई जब खेती के लिए नई नई मशीनें बनीं और खाद का आविष्कार हुआ और समुचित सिंचाई के लिए करोड़ों की लागत से बड़े बड़े डैम बने। जैसे जैसे सभ्यता का विकास हुआ, लोगों में कला एवं संस्कृति का भी विकास हुआ, वह घुमंतू जीवन छोड़कर सामाजिक जीवन जीने लगा। और इस प्रक्रिया में विभिन्न प्रकार की कला का विकास हुआ, जिसमें एक था रंगमंच या नाटक, जो हर गांव या समाज में लोग किया करते थे। मगर आनेवाली सदियों तक सहेज कर रखने वाली और दो चार जीबी खर्च करके एक दूसरे को साझा करने वाली फिल्मों का निर्माण तब हुआ जब कैमरे का आविष्कार हुआ।
अक्सर कहा जाता है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है। बात सौ फीसदी सही भी है। मगर ऐसा क्या था कि आदिमानव की आवश्यकताएं इतनी कम थीं कि आविष्कार ही नहीं हुए या बहुत कम हुए? असल में यह भी एक नैसर्गिक प्रक्रिया है। जैसे जैसे मनुष्य के मस्तिष्क एवं दिमाग का विकास हुआ, उसके सोचने और कल्पना की शक्ति में वृद्धि हुई। और इसी के साथ उसकी आवश्यकताएं भी बढ़ने लगीं, जिनसे नित नए आविष्कार होते चले गए। एक वैज्ञानिक आविष्कार ने दूसरे का मार्ग प्रशस्त किया। जैसे ही बिजली बनी उसका उपयोग धीरे धीरे हर क्षेत्र में होने लगा, इलेक्ट्रिक उपकरण से लेकर इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरण एवं कार और जहाज में भी। असल में अधिकतर नए आविष्कार किसी न किसी रूप में अपने पिछले मॉडल पर आधारित होते हैं, अलबत्ता कुछ नए भी होते हैं, जो वस्तुओं में उपयोगिता का सृजन कर हमारे जीवन को आसान बनाते रहते हैं।
एक दशक पहले तक किसी को एक जीबी रैम का मोबाइल मिल जाए तो वह खुश हो जाता था, मगर आज किसी बच्चे को भी 12 जीबी से कम का मोबाइल दिया जाय तो वह रोने लगता है। कुछ वर्षों पहले तक कोई सोच भी नहीं सकता था कि 10एनएम से नीचे का प्रोसेसर कैसे बन पाएगा, मगर आज 4एनएम का प्रोसेसर तैयार है। वह दिन दूर नहीं जब 1 एनएम से नीचे का भी प्रोसेसर बन जाए।
विधान न केवल वस्तुओं में उपयोगिता का सृजन कर उन्हें हमारे लिए उपयोगी बनाता है, बल्कि हमारी इंद्रियों की सीमित क्षमता में बढ़ोत्तरी करता है। नंगी आंखों से हम केवल कुछ किलोमीटर तक ही देख सकते हैं, मगर वहां भी रेजोल्यूशन बहुत कमजोर जो जाता है। चश्मा लगाकर हम थोड़ा सुधार कर पाते हैं। मगर विज्ञान ने हमें आज ऐसे शक्तिशाली कैमरे दिए हैं कि हम करोड़ों प्रकाश वर्ष दूर अवस्थित ब्लैकहोल की स्पष्ट तस्वीरें लेकर उनका अध्ययन कर रहे हैं। यह विज्ञान की उपयोगिता सृजन की क्षमता का ही कमाल है कि हम कुछ घंटों में हजारों किलोमीटर का सफर बिना सफर किए हुए तय कर पाते हैं।
कुछ लोगों के मन में प्रश्न पैदा हो रहे होंगे कि आखिर यह विज्ञान भला कौन सी बला है। विज्ञान असल में केवल उन आविष्कारों का संकलन नहीं है, जिन्हें मनुष्य ने समय के साथ किया है। बल्कि ब्रह्मांड में हो रही हर प्रक्रिया विज्ञान है। इन प्रक्रियाओं को हम धीरे धीरे तब समझ पाते हैं जब हमारी क्षमता में वृद्धि होती है। आपका यह लेख पढ़ना भी विज्ञान है और हमारा लेख लिखना भी। ग्रहों का परिक्रमण और मनुष्यों का अतिक्रमण भी विज्ञान है। सांसों का चलना और दिल का मचलना भी विज्ञान है। औरत और मर्द और दिल का दर्द भी विज्ञान है। चोरों की फॉर्जरी और डॉक्टर की सर्जरी भी विज्ञान है। कला भी विज्ञान है और विज्ञान भी विज्ञान है। सर्दी, गर्मी, भूकंप, सूखा, बाढ़ और उसके बाद का राहत कार्य भी विज्ञान है। बदलते मौसम के साथ बदलता मिजाज भी विज्ञान है। रोग भी विज्ञान है और इलाज भी विज्ञान है। खिड़की से टंगा पर्दा भी विज्ञान है और सड़क पर उड़ता हुआ गर्दा भी विज्ञान है। समंदर का पानी और इंसान की जवानी भी विज्ञान है। विज्ञान ब्रह्मांड के कण-कण में व्याप्त है और हम सब उसका परिणाम हैं क्योंकि हमारे शरीर के कई कण ब्रह्मांड के दूसरे ग्रहों और तारों से भी आए हैं।
बाबागिरी की कार्यशैली
बाबा तो आप समझते ही हैं। न किसी परिभाषा की जरूरत है न किसी व्याख्या की। बाबा लोग करते क्या हैं ये सबको पता है। इन बाबाओं के सत्संग में क्या होता है ये भी सबको पता है। सभी बाबाओं और सभी सत्संगों का सार निचोड़-निचोड़ कर निकाला जाय तो निष्कर्ष यही निकलता है
कि कुछ आत्मा परमात्मा की बात होती है और कुछ सामाजिक नैतिकता की, जिसे सुनने के लिए दूर-दूर से आए हुए लोग दो चार दिन के कल्पवास पर भी रुकने का खर्च खुद ही वहन करने को तत्पर रहते हैं।
असल में बाबा जो सत्संग करने आता है वह कुछ धार्मिक और कुछ नैतिक बातें बोलने के लिए आता है और भक्त सुनने के लिए आते हैं। दोनों की जिम्मेदारियां उनकी भूमिका के हिसाब से पूर्वनिर्धारित होती हैं और दोनों अपनी जिम्मेदारियां बड़ी ही तन्मयता से निभाते हैं। बाबा के पास अपना एक शब्द-संचय होता है और साथ ही एक विशेष शब्द-संयोजन। इसमें चालीस पचास चांद लगाने के लिए बाबा अपनी वाणी का एक अलग सा पिच और मोडुलेशन तय कर लेता है जिससे भक्त को बाबा की बाबागिरी में संदेह न रहे और बाबा की एक अलग पहचान बन सके। अपने बाबापन को और सुदृढ़ बनाने के लिए बाबा अपने लिए कुछ खास तकिया कलाम जैसे वाक्य बना लेता है, जिसे सुनते ही लगे कि ये फलां बाबा बोल रहा है। बाकी किसी खास देश, संस्कृति या धर्म में पैदा हुए भक्तों को प्रवचन देनेवाला बाबा इस बात का पूरा खयाल रखता है कि उनके सामने कोई ऐसी चीज पेश न जी जाए जो उन्हें अजीब लगे यानी ऐसी बातों को ही थोड़ा इधर उधर घुमाकर एक नए अंदाज में पेश किया जाय, जो भक्त सदा से सुनते आ रहे हैं और मानते आ रहे हों ताकि वे असहज न हों। वैसे भी आजतक दुनिया में कोई यूनिवर्सल बाबा नहीं हुआ; सारे बाबा स्थानीय संस्कृति, पर्व त्योहार एवं धर्म के प्रतिनिधि के रूप में काम करते आए हैं।
भक्त यहां भी अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए बड़ी ही तन्मयता से बाबा की कही एक एक बात को प्रसाद स्वरूप ग्रहण करता रहता है।
बाबा अक्सर दैवी शक्तियों और उनकी कृपा से बिगड़े काम बनने के उदाहरण भी पेश कर देता है जो न तो कभी निकट भविष्य में हुए होते हैं और न ही कभी भविष्य में घटित होने की संभावना हो। मगर काल्पनिक कहानियों को धर्म, संस्कृति, अपनी अस्मिता एवं अपनी अलग पहचान मान बैठे भक्त श्रोता को बाबा की झूठी कहानियों पर बिल्कुल शक नहीं होता क्योंकि बाबा उन झूठी कहानियों को भक्त श्रोता की पहचान, संस्कृति एवं श्रेष्ठता से जोड़ देता है। आखिर अपनी संस्कृति एवं पहचान पर किसे गर्व नहीं होता?
जरा ठहरिए, जजमेंटल होने से पहले आगे पढ़िए। मैं आपके धर्म की आलोचना बिलकुल नहीं कर रहा। वह आपका व्यक्तिगत मामला हो सकता है, जातिगत मामला हो सकता है, सामाजिक, राजनीतिक या राष्ट्रीय मामला हो सकता है, मगर आज की चर्चा का विषय वह नहीं हैं। आज का विषय है बाबा और भक्त की कार्यशैली एवं उनके बीच का अटूट रिश्ता जो एक दूसरे को फेविकोल से भी ज्यादा मजबूती से बांधे रखता है।
बाबा अपने सत्संगीय प्रवचन को भक्तों के लिए और अधिक सुग्राह्य एवं प्रभावी बनाने के लिए स्वयं को किसी भगवान या किसी अन्य धर्मगुरु के अवतार के रूप में भी पेश करता है, जिस पर भक्तों की पुरानी पीढ़ियों का अटूट विश्वास होता है। भक्त यहां और अधिक अपनापन दिखाते हुए अपना उत्तरदायित्व निष्कपट भाव से निभाता है और कोई प्रश्न नहीं करता, बल्कि अपनी तन्मयता सिद्ध करने के लिए अपने सिर को कभी बाएं और कभी दाएं हिलाते हुए और यदा-कदा आंखें बंद कर मन ही मन बाबा की बातों को आत्मसात करने का संकेत देता है। भक्त अपने पूज्य बाबा की दैवीय शक्ति की स्थापना में जरा भी संदेह नहीं होने देता और ये प्रश्न गलती से भी उसके मन में प्रवेश नहीं करता कि ये हमारे जैसा ही हाड़ मांस का मनुष्य खुद को भगवान का अवतार किस हैसियत से घोषित कर सकता है। वह तो बाबा को अवतारी पुरुष समझकर अपनी गाढ़ी मेहनत की कमाई से कुछ पैसे बचाकर बाबा के आशीर्वाद से अपने और अपने परिवार के सारे बिगड़े काम बनाने आया है, वह भी केवल आशीष मात्र से और बिना किसी परिश्रम के।
बाबा भक्तों के हृदय में और अधिक गहराई तक पैठ जमाने के लिए और स्थायी एवं प्रबल प्रभाव स्थापित करने के लिए अपनी अलग वेशभूषा प्रस्तुत करता है, जिससे वह बाकियों से अलग लगे। साथ ही वह इस बात का पूरा खयाल रखता है कि भक्त के सामने केवल ऐसी चीजें परोसे जाएं, जिससे वह अपनी पुरातन संस्कृति से जुड़ा रहे और जरा भी असहज न हो। वह अनजाने में भी ऐसी बातें नही करता, जिससे भक्त के मानस में प्रश्न करने की प्रवृत्ति के बीज अंकुर हो जाएं, वरना भक्त भक्त की श्रेणी से अलग हो जाएगा। बाबा अनजाने में भी कभी ये बात नही कहता कि सूरज भी एक तारा है और वह भी एक दिन सुपरनोवा बनकर खत्म हो जाएगा। उसके मुंह से कभी भी ऐसी बात नहीं निकलती कि मनुष्य भी एक स्तनधारी प्राणी है और कभी भी कोई मनुष्य प्रजनन के अलावा किसी और पद्धति से पैदा नही हुआ। बाबा सपने में भी ऐसी बातें नहीं कह सकता कि धरती पर ऑक्सीजन का सबसे बड़ा स्रोत समुद्र के अंदर पाया जानेवाला एक पौधा है जिसका नाम Phytoplankton है। बाबा के मुंह से कभी भी ऐसी बात नहीं निकलती कि दो सौ साल पहले कहीं बिजली नहीं थी और मानव ने ही इसका आविष्कार और विस्तार किया। वह कभी भी अपने भक्त से ऐसी बातें नहीं करता कि आग जलाने से लेकर पहिया बनाने तक, साइकिल से लेकर जहाज बनाने तक, तार से लेकर पंखा बनाने तक, कुकर से स्नूकर तक, स्टूल से पुल तक, आरामगाह से बंदरगाह तक, गाड़ी से साड़ी तक, कॉलर से रोलर तक, कढ़ाई से शहनाई तक, सर्जरी से फार्जरी तक, हेयर डाई से वाई फाई तक, ट्रैक्टर से लेकर पावर फैक्टर तक, कबड्ड़ी से लेकर फुटबॉल तक सब कुछ मनुष्य ने अपने कड़े शारीरिक और मानसिक परिश्रम से बनाया है। इनमें से कोई भी चीज किसी दैवी चमत्कार से या किसी सिद्ध बाबा की हथेली से नहीं निकली है। बाबा गलती से भी कोई ऐसी बात नहीं करता जिससे भक्त की भक्ति भावना में जरा भी ह्रास हो। उसका प्रवचन हमेशा आस्था, धर्म, पूजा पाठ, संस्कृति एवं चमत्कार से ओत प्रोत होता है क्योंकि भक्त को भक्ति की डोर से कसकर बांधे रखने का यही सबसे प्रभावी तरीका है। बाबा भक्त को कभी भी इस बात का आभास नहीं होने देता कि वह बिना किसी परिश्रम, नौकरी या व्यापार के करोड़ों का मालिक है। भक्तों को अगर गलती से पता भी चल जाए कि बाबा के पास कितनी दौलत और कितनी प्रेमिकाएं हैं, तो उन्हें उससे कोई आपत्ति नहीं होती; वे उसे बाबा के अवतारी पुरुष होने के कारण विशेषाधिकार समझकर सत्यापित करने की पूरी कोशिश करते हैं।
आखिर जब बाबा स्वयं को और अपने भक्तों को विज्ञान की परिधि में बांध ले, तो फिर उसकी दैवी शक्ति पर कौन भरोसा करेगा, जिसे वह बरसों की साधना से प्राप्त हुई शक्ति के रूप में पेश करता आया है। वह इस बात का पूरा प्रयास करता है कि भक्तों को ऐसी वैज्ञानिक बातें झूठी लगें कि 10,000/- वर्ष पहले मानव संगठित खेती करने में भी सक्षम नहीं था और तब हर आदमी शिकारी का जीवन बिताता था, क्योंकि बाबा को पता है कि ऐसी बातें मान लेने से भक्त की सोच दूसरी दिशा में काम करने लगेगी और फिर वह स्वयं को दूसरों से या दूसरे बाबाओं के भक्तों से श्रेष्ठ नही मान पाएगा।
भक्त अब तक यह मान चुका होता है कि जीवन का प्रथम और अंतिम सत्य केवल यही बाबा बता सकते हैं, जिसे जानना मानव जीवन का प्रथम और अंतिम लक्ष्य है और इसके लिए भक्त बाबा की दिव्यवाणी का आस्वादन करने के साथ भी और उसके बाद भी उनके चरणरज को पाने के लिए उन्मुक्त मन से खुले मैदान में कुछ करने के लिए कूच कर देता है, बिना इसकी परवाह किए कि उसकी इहलीला आज़ ही समाप्त हो जाएगी या बाबा के अमृतवचन के अगले अंक को सुनने के लिए बचेगी।
बाबा के चरणरज पाकर या खोकर जो भक्त स्वर्ग सिधारने से वंचित रह जाते हैं, उनकी भक्ति में एक अलग सा उछाल आता है और वे बड़ी श्रद्धा से समवेत बोल पड़ते हैं: इसमें बाबा का लेशमात्र भी दोष नहीं है; वे तो हमें जीवनोपयोगी ज्ञान देते हैं और जीवन का प्रथम एवं अंतिम लक्ष्य बताते हैं। और ध्यान रहे, इस हुजूम में सबसे ज्यादा संख्या औरतों की ही होती है।
सच तो ये है कि ये बाबा लोग अपना एक नया cult बना रहे हैं। Cult भी मूलतः चार प्रकार के होते हैं। किसी भी कल्ट में फंसने के बाद मनुष्य सोचने के काबिल नहीं रह जाता है। दुनिया के कई देशों में, यहां तक कि जापान और अमेरिका में भी ऐसे कल्ट हुए हैं, जिनके कहने पर लोगों ने खुद के साथ अपने पूरे परिवार की जान ले ली है।
अतः हर उस व्यक्ति की ये नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी है, जिसे कुदरत ने कुछ न कुछ दिमाग दिया है, कि तार्किक सोच विकसित कर झूठ और सच में फर्क करना सीखे और सामाजबके बाकी व्यक्तियों को भी सिखाए और अपने दिमाग एवं संसाधनों का दुरुपयोग झूठ एवं पाखंड के प्रचार में होने से बचाए।
संस्कार किसने नहीं दिए
जब भी कहीं कोई अपराध होता है तो अक्सर लोग कहते हुए सुनाई दे जाते हैं, "अगर इसके मां बाप ने संस्कार दिए होते तो, ये ऐसा काम नहीं करता।" ऐसा खासकर तब जरूर कहा जाता है जब अपराधी कोई युवा या अधेड़ उम्र का हो, बूढ़ा न हो।
ये बात भी लोगों की जुबान से बिल्कुल किसी रेडीमेड नारे की तरह निकल जाती है जैसे बाकी मामलों में होता है। ये इल्जाम लगाने से पहले कोई एक क्षण भी नहीं सोचता कि आखिर उस अपराधी के अपराध में मां बाप का कितना योगदान है। क्या मां बाप ने उसे अपराधी बनाने के लिए प्रेरित किया? क्या मां बाप ने उसे अपने दूसरे बच्चों से अलग शिक्षा और संस्कार दिए? क्या समाज ने उसके साथ अलग सलूक किया? क्या हर उस संस्था या व्यक्ति ने उसे अपराधी बनने को मजबूर किया जिनसे उसका संपर्क रहा? क्या उसके साथ इतना जुल्म हुआ कि उसे अपराध करने या अपराधी बनने के अलावा कोई रास्ता न था? विश्लेषण तो इन सब कारकों का भी होना चाहिए।
इस लेख का उद्देश्य इस बात का विश्लेषण करना नहीं है कि कोई व्यक्ति अपराध क्यों करता है या अपराधी क्यों बनता है, बल्कि यह समझना है कि किसी व्यक्ति के अपराधी बनने पर उसके माता-पिता या अभिभावक को कितना जिम्मेदार ठहराना और कितना उचित है। अगर किसी दंपत्ति के एक या एक से अधिक बच्चे हैं तो वे कभी भी उसे अपराधी बनने की प्रेरणा नहीं देते। माता पिता हमेशा अपने बच्चों को न केवल गलत करने से मना करते हैं बल्कि सही काम करने के लिए प्रेरित और मदद भी करते हैं। यहां तक कि सामंतवादी सोच के और दबंग लोग भी अपने बच्चों को गलत काम करने से मना करते हैं। अलबत्ता इसके कुछ अपवाद जरूर हो सकते हैं।
वैसे भी संस्कार कोई दवाई नहीं है जिसे सुबह शाम कोई अपने बच्चों को दे सके। अगर संस्कार का पूर्ण योग देखा जाय तो यह परिवार, समाज एवं शिक्षण संस्थानों से आता है। अर्थात् समाज में जो भी अच्छाइयां और बुराइयां हैं उसका असर व्यक्ति पर पड़ता है। साथ ही समाज की हर अच्छाई और बुराई को व्यक्ति अपने जीवन में आत्मसात नहीं करता। एक ही परिवार, समाज और स्कूल के बच्चे स्वभाव में बिल्कुल अलग तरह के होते हैं। यहाँ तक कि कुछ का स्वभाव बिल्कुल उलट होता है।
अतः जब भी कोई व्यक्ति कोई अपराध करे तो एक नारे की तरह यह कहना बंद किया जाय कि अगर उसके मां बाप ने संस्कार दिया होता तो वह ऐसा काम नहीं करता।
हिन्दी की उपयोगिता और सम्मान एवं भारतीय भाषाओं के बरक्स उसका स्थान
हिन्दी दिवस के अवसर पर सभी देशवासियों को शुभकामनाएं!
जब भी हम हिंदी के सम्मान और उत्थान की बातें करते हैं, तो हमारे दिमाग में एक विचार चलता है और यह विचार होता है अंग्रेजी के बरक्स हिंदी का सम्मान, उत्थान और अधिक उपयोग। मगर कुछ हिंदी भाषी लोगों के मन में हिंदी को लेकर अतिवाद पनपने लगता है और उनकी यह भावना भारत की क्षेत्रीय भाषाओं के ऊपर हावी होने लगती है। यह एक ऐतिहासिक, भौगोलिक और व्यहवारिक सच्चाई है कि हमारा देश न केवल सांस्कृतिक बल्कि भाषायी विविधताओं का देश है। सच तो यह है कि सांस्कृतिक विविधता का एक मूल घटक और कारक होती है भाषा। हर किसी को अपनी संस्कृति एवं भाषा से प्यार होता है। भाषा न केवल ज्ञान के संचय का माध्यम होती है, बल्कि संस्कृति के अभिव्यक्ति का माध्यम भी होती है।
ऐतिहासिक और भाषावैज्ञानिक आधार पर आकलन किया जाय तो हिंदी सभी भारतीय भाषाओं से नई भाषा है। भारतीय भाषाओं जैसे तमिल, मलयालम, कन्नड़, मराठी, गुजराती, कोंकड़ी, अवधी, ब्रज आदि को क्षेत्रीय भाषाएं कहना भी अनुचित होगा, क्योंकि इन भाषाओं के बोलने वालों की संख्या कई देशों के राजभाषा या राष्ट्रभाषा के बोलनेवालों की संख्या से कई गुना है।
जिस प्रकार हमारे शरीर, दिमाग और तकनीक का विकास एवं उद्विकास होता है, ठीक उसी प्रकार भाषाओं का भी विकास होता है। दुनिया की कोई भी भाषा आसमान से या किसी देवता के मुंह से नहीं टपकी है। सभी भाषाओं का विकास आदिम भाषाओं से ही हुआ है।अलबत्ता जिस भाषा में जितना काम हुआ, जितने आविष्कार ह्यूज उस भाषा के बोलने वालों ने जितने देशों पर शासन किया, जिस भाषा ने दूसरी भाषाओं और खुद से जुड़ी हुई भाषाओं के शब्दों को जितनी आत्मीयता से अपनाया उस भाषा का उतना ही विकास हुआ। अंग्रेजी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। आजकल अंग्रेजी सबसे अधिक देशों में बोली जाती है। इसका कारण है उनका दूसरे देशों पर औपनिवेशिक शासन और उनकी दूसरी भाषाओं के शब्दों को स्वयं में समाहित करने की तत्परता। मजे की बात है कि अंग्रेजी भाषा के साथ भी ये हस्र हो चुका है। 11 वीं से 14 वीं सदी तक इंग्लैंड की राजभाषा यानी ऑफिशियल लैंग्वेज फ्रेंच थी। उसी प्रकार मुगलों के काल में भारत की ऑफिशियल भाषा उर्दू थी। यहां तक कि प्रेमचंद के शुरुआती उपन्यास भी उर्दू में ही थी।
हिन्दी के उद्भव एवं विकास की बात करें तो यह भी उत्तर भारत की भाषाओं के शब्दों और संरचना से ही बनी है। और भारत के अन्य क्षेत्रों की भाषाएं हिंदी से सैकड़ों और कुछ तो हजारों साल पुरानी हैं। सूरदास ने ब्रजभाषा में रचनाएं की, तुलसीदास ने अवधी को चुना। कबीरदास ने उत्तर भारत की लगभग सभी भाषाओं में लिखा। हिन्दी अपने वर्तमान स्वरूप में धीरे-धीरे आई जिसके अनेक कारण हैं। आज भी हम जिन्हें पूरी तरह से हिन्दी भाषी प्रदेश या क्षेत्र समझते हैं, वहां भी कई अन्य भाषाएं हैं, कुछ लिखी भी जाती हैं और कुछ को बोलियों की सीमा में बांध दिया जाता है, जबकि भले ही उनमें लिखित साहित्य कम मिले, मगर संगीत और गेय साहित्य अधिक मिलता है। अलबत्ता जब लिखित साहित्य और विभागीय काम की बात आती है तो हिन्दी का प्रयोग होता है।
कुछ हिंदी भाषी प्रदेशों को छोड़कर बाकी प्रदेशों में हिंदी एक संपर्क की भाषा के रूप में काम करती है, या यूं कहना चाहिए कि संपर्क भाषा से अधिक नहीं है। इन प्रदेशों में लेखन, पठन एवं अध्यापन उनकी भाषाओं में होता है।
हिन्दी का पहला व्याकरण जोशुआ केटलार ने डच भाषा में 17 वीं शताब्दी के अंत में लिखा था। हिन्दी साहित्य का इतिहास सबसे पहले गारसा द तासी ने फ्रेंच में "इस्त्वार द ल लितरेत्यूर ऐंदूई ऐ ऐंदूस्तानी" नाम से लिखा था। हिन्दी भाषा में सबसे पहले एम ए एक बंगाली व्यक्ति ने किया था। उसके बाद धीरे धीरे हिंदी का, या यूं कहना चाहिए कि हिंदी के वर्तमान स्वरूप का विकास होने लगा और हिंदी के विद्वान होने लगे। फिर शब्दकोश भी बने और हिंदी का भाषावैज्ञानिक अध्ययन होने लगा, हिंदी में साहित्य सृजन बढ़ा और हिंदी साहित्य का इतिहास भी अनेक विद्वानों ने लिखा।
ध्यान देने की बात यह है कि हिंदी साहित्य के इतिहास में उस पूरे साहित्य को शामिल किया जाता है जो हिंदी के वर्तमान स्वरूप के हिसाब से हिंदी थी ही नहीं। अवधी, ब्रज, राजस्थानी, डिंगल पिंगल और भोजपुरी के साहित्य को निकाल दिया जाय तो प्राचीन हिंदी साहित्य में कुछ बचेगा ही नहीं। और न ही प्राचीन हिंदी साहित्य का वर्गीकरण हो पाएगा। तुलसीदास ने अवधी में लिखा। सूरदास ने ब्रजभाषा में लिखा। रासो साहित्य डिंगल पिंगल भाषाओं में लिखा गया। डिंगल भाषा मूलतः पुरानी राजस्थानी और अपभ्रंश का मिश्रित रूप है। पिंगल भाषा पुरानी ब्रजभाषा और अपभ्रंश का मिश्रित रूप है। अगर हिंदी के वर्तमान स्वरूप के साहित्य के हिसाब से आकलन किया जाय तो हिंदी साहित्य में न तो आदिकाल होगज़ न रीतिकार और न भक्तिकाल, क्योंकि उनकी सभी रचनाएं तत्कालीन क्षेत्रीय भाषाओं में थीं।
एक महत्वपूर्ण वाकया काफी प्रसिद्ध है। जब तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना अवधी में शुरू की, तो काशी के संस्कृत विद्वानों ने उनका बहुत विरोध किया। संस्कृत के उन विद्वानों के विरोध के रूप में तुलसीदास का सवैया बहुत प्रसिद्ध है:
"धूत कहो, अवधूत कहो, राजपूत कहो, राजपूत कहो, जोलहा कहो कोऊ।
काहू की बेटी सों बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ।
तुलसी सरनाम गुलाम है राम को, जाको रुचे सो कहे कछु ओऊ।
मांगि के ख़ैबो, मसीत में सोइबो, लैबो को एक न देबे को दोऊ।"
अर्थात जो सम्मान और अस्मिता देश में हिंदी की है वहीं सम्मान देश की सभी भाषाओं का है। अगर अंग्रेजी का विरोध हिंदी के सम्मान के लिए होता है तो अंग्रेजी का स्थान देश के सभी प्रदेशों में हिंदी नहीं ले सकती, बल्कि वहां की भाषाएं लेंगी। अगर संघ लोग सेवा आयोग की परीक्षाओं में हिंदी के सम्मान की बात होती है तो वह मूलतः अंग्रेजी के बरक्स सभी भारतीय भाषाओं के सम्मान की होती है। मगर कुछ हिंदी भाषी लोग हिंदी को अधिक तरजीह देते हैं और दूसरे प्रदेशों की भाषाओं को कम, जबकि उन भाषाओं के बोलनेवालों की संख्या करोड़ों में है।
साथ ही यह भी हमें स्वीकार करना चाहिए कि आज अगर पूरे देश में आम आदमी के लिए कोई संपर्क भाषा है तो वह हिंदी है। अगर की तमिल ड्राइवर ट्रक लेकर गुजरात जाता है तो उसे हिंदी का सहारा लेना पड़ता है। अगर कोई बंगाली टेक्नीशियन कर्नाटक में नौकरी करता है तो वह हिंदी का सहारा लेता है। हमारे देश में इतनी भाषाएं हैं कि किसी के लिए ये संभव नहीं है कि सारी भाषाएं सीख पाए। मगर आज के दौर में कोई भी अपने प्रदेश और अपनी भाषा में सीमित नहीं रह सकता है।
ठीक उसी प्रकार अकादमिक स्तर पर, उच्च न्यायालय के स्तर पर और कॉर्पोरेट की दुनिया में संपर्क भाषा इंग्लिश है।
अर्थात देश की भाषाई विविधता का सम्मान ही हिंदी का सम्मान है और सभी भारतीय भाषाओं का सम्मान है। अतः सभी देशवासियों से निवेदन है कि भाषाई अतिवाद से दूर रहते हुए सभी भाषाओं और संस्कृति का सम्मान करें एवं आवश्यकतानुसार भाषाओं का प्रयोग करें। भाषाओं की उपयोगिता पर ध्यान दिया जाय न कि किसी भाषा के अधिक सम्मान पर क्योंकि सभी भाषाओं को समान सम्मान का अधिकार है।
स्वदेशी का असली कॉन्सेप्ट
जब भी किसी व्यक्ति के दिमाग में स्वदेशी की बात आती है, तो सहसा उसके मन में ये ख्वाब पलने लगते हैं कि उसे केवल अपने देश की मौलिक चीजों और केवल अपने देश में निर्मित उत्पादों का ही उपयोग करना चाहिए।मगर वास्तव में आज के दौर में ऐसा संभव नहीं है।
प्राचीन काल में जब मनुष्य अपने आदिम रूप में रहा करता था, तब उसकी मजबूरी थी कि वह केवल उन्हीं चीजों का उपयोग कर पाता था, जो उसके इर्द गिर्द उपलब्ध थीं। इसका कारण था यातायात और तकनीक का अभाव। आदिम काल में मनुष्य का दूसरी सभ्यताओं से संपर्क संभव नहीं था, इसीलिए दूसरी सभ्यताओं की चीजों, रहन-सहन और उत्पादों से वाकिफ नहीं था।
यह बात केवल भारतीय संदर्भ में नहीं, बल्कि वैश्विक परिप्रेक्ष्य में कही जा रही है। लगभग हजारों सालों पहले से एक देश का दूसरे देश से व्यापार होता चला आ रहा है। फा हियान 399 ईसवी में भूमार्ग से भारत आया था, मगर समुद्री मार्ग से चीन वापस गया था। वैसे तो ईसा से पहले ही विभिन्न देशों का एक दूसरे के साथ व्यापार विनिमय आरम्भ जो चुका था, मगर विज्ञान एवं तकनीक एवं यातायात के नए साधनों के साथ व्यापार में वृद्धि हुई।
दुनिया का कोई भी देश नहीं है, जो पूरी तरह स्वदेशी कच्चे माल या उत्पाद पर निर्भर हो; किसी न किसी रूप में उसकी दूसरे देशों पर निर्भरता कायम रहती है।
आज के दौर में न तो हम स्वदेशी खेती पर निर्भर रह सकते हैं, न ही स्वदेशी उद्योग पर। न तो हम स्वदेशी खेलकूद से संतुष्ट हो सकते हैं, न ही स्वदेशी शिक्षा से। अगर हम स्वदेशी का अतिवाद की सीमा तक पालन करने की जिद कर लें, तो न तो हम क्रिकेट खेल पाएंगे और न ही देख पाएंगे। न ही इसके आधार पर करोड़ों का व्यापार हो पाएगा। अगर हम विदेशी चीजों और कलाओं का बहिष्कार करने लगे, तो न तो हम हारमोनियम पर भारतीय शास्त्रीय संगीत का रियाज कर पाएंगे, जो जर्मनी से आया और न ही हम फिल्मी गीतों में गिटार का कॉर्ड लगा पाएंगे, जो कि स्पेन से आया। अगर हम स्वदेशी को अपनी भावनाओं पर हावी होने की इजाजत दे दें, तो न तो हम अपने बच्चों को क्वांटम फिजिक्स पढ़ा पाएंगे और न ही मोबाइल उपयोग करने की इजाजत दे पाएंगे। अगर हम स्वदेशी से बेइंतहां मुहब्बत करने लगे, तो न तो हम कोर्ट पैंट पहन पाएंगे और न ही पेट्रोल वाली गाड़ी चला पाएंगे। न तो हम अपने बच्चों के बर्थडे पर केक खिला पाएंगे, न ही माइकल जैक्सन के मून वॉक का आनंद ले पाएंगे। न तो हम मैकाले के कानून का पालन कर पाएंगे और ने ही केपलर के सिद्धांतों पर विश्वास कर पाएंगे। न तो हम टेस्ला के एसी मोटर से चलने वाले पंखों का इस्तेमाल कर पाएंगे न ही शादियों में डीजे का आनंद ले पाएंगे। न तो हम प्रिंटिंग प्रेस से छपी किताबें पढ़ पाएंगे और ने ही गैस चूल्हे का इस्तेमाल कर पाएंगे। न तो हम अपने घरों की दीवारों में बिजली के लिए तांबे की तार दौड़ा पाएंगे, जिसका सबसे अधिक उत्पादन चिली में होता है और ने ही सड़कें, भवन और पुल निर्माण के लिए अर्थ मूवर का उपयोग कर पाएंगे। न तो हम विदेशी लेखकों और दार्शनिकों की किताबें पढ़ पाएंगे और न ही विदेशी तकनीक और ज्ञान का उपयोग कर पाएंगे। न तो हम अनानास खा पाएंगे जो ब्राजील में पैदा हुआ और पुर्तगाली लोगों द्वारा हमारे देश में लाया गया और न ही हम अमरूद का आनंद ले पाएंगे, जो पेरू से आया। न तो हम आम का रसास्वादन कर पाएंगे, जो बर्मा से आया और न ही वायुयान से यात्रा कर पाएंगे, जो अमेरिका से आया। पुष्पक विमान पर सवारी करने वालों को यहां शामिल नहीं किया जा सकता, क्योंकि उनके पास दिव्यशक्ति होती है और यहां मनुष्य एवं उसकी सभ्यता एवं विकास की बात हो रही है।
सोचने की बात है कि अगर हम उपरोक्त चीजों का उपयोग बंद कर दें, हमें आदिम सभ्यता के करीब जाने में कितनी दूरी बचेगी।
सच तो ये है कि हर देश, सभ्यता और संस्कृति में बहुत कुछ मौलिक और स्वदेशी होता है; कहीं कम तो कहीं ज्यादा। मगर केवल स्वदेशी न तो काम चलता है और न ही विकास होता है। जो देश स्वदेशी के चक्कर में पड़े रहे वे पिछड़ते चले गए। जिन्होंने दूसरे देशों की तकनीक और ज्ञान का उपयोग किया उन्होंने विकास के नए कीर्तिमान स्थापित किए।
अतः स्वदेशी का असली अर्थ होना चाहिए विदेशी तकनीक की सहायता से अपने देश की फसलों, संसाधनों, तकनीक, विज्ञान, कारखाने, शिक्षा, न्याय व्यवस्था, कला एवं संगीत, उद्योग धंधे एवं उत्पादन को विकसित एवं सुदृढ़ करना, न कि स्वदेशी के पुरातनपंथी अर्थ को चरितार्थ करते हुए आदिम युग के करीब जाने की कोशिश करना।